मंदिरों में जाते हुए जितना मैं जूता चोरों से सशंकित रहता हूं उससे ज्यादा अड़चन मुझे उन फूल माला बेचने वालों से रहती है जो ठेलम-ठाल करते हुए घेर लेते हैं कि आइये हमारे यहां से फूल लिजिये.....चप्पल यहां उतारिये.....पांच मिनट में जल्दी दर्शन मिलेगा....इधर आइये। कम्बख्त दिमाग खराब कर देते हैं। आज मुंबई के सिद्धिविनायक मंदिर में गया था वहां भी यही सब देखा। टैक्सी से उतरते ही एक हिजड़ा आकर खड़ा हो गया। उससे पार पाया तो आगे फूल वाले घेर लिये। एक ने कहा -अंदर तीन घंटे लाइन है, इधर हमारे दुकान के बगल के रास्ते से जाएंगे तो पांच मिनट में दर्शन मिलेगा। एक तो रविवार और दूजे गणेश जी के त्यौहार के चलते यह भीड़ होना लाजिमी भी है।
खैर, उन फूलवालों को यूं ही छोड़ श्रीमती जी के साथ अंदर मंदिर की ओर चल पड़ा। भीतर जाने पर पता चला कि उतनी भीड़ नहीं है सिद्धिविनायक में जितना कि बाहर फूलवाला कह रहा था। संभवत: ज्यादातर लोगों ने लालबाग के राजा की ओर रविवार के दिन जाना ठीक समझा हो या हो सकता है घरों में ही लोगों ने गणेश जी को इन दस दिनों में पूजन योग्य समझा हो। कम भीड़ के चलते केवल पांच मिनट में सिद्धिविनायक मंदिर में जाकर दर्शन हो गये। बाहर निकला तो फिर एक दूसरा किन्नर समुदाय का सदस्य आकर खड़ा हो गया। देखा गया है कि ऐसे लोगों को पैसे न दो तो अनाप शनाप बोल बैठते हैं। नाहक कौन उनकी बात सुने इसलिये ज्यादातर लोग दे भी देते हैं। मैंने भी दो-चार रूपये देने की सोचा लेकिन श्रीमती जी का मूड देख मुंह दूसरी ओर फेर टैक्सी का इंतजार करने लगा। पता नहीं क्या तो बोलकर वह किन्नरी वहां से चला गया। थोड़ी देर बाद हम दुन्नू परानी लोग घर आ गये। रास्ते में मन ही मन किन्नरों से संबंधित दो चार वाकये याद आ गये । उनमें से एक तो मेरे मित्र के साथ वाकया हुआ जब वह अपनी गर्ल फ्रेण्ड के साथ पार्क में बैठा था। तभी वहां हिजड़ा आ पहुंचा और उससे पचास रूपये की मांग करने लगा। मित्र परेशान, उसकी गर्ल फ्रेण्ड परेशान कि ये कहां से आ गया। मित्र पैसे देने में आनाकानी करने लगा तो वह लगा वहीं अनाप शनाप बोलने। गर्ल फ्रेण्ड के चक्कर में बेचारे ने जल्दी से पचास का नोट जेब से निकाला और उसे देकर अपनी पीछा छुड़ाया।
एक और वाकया याद आता है। मुंबई से चलने वाली लंबी दूरी की गाड़ियों में अक्सर कल्याण के पास कुछ किन्नर ग्रुप बनाकर चढ़ते हैं और हर डिब्बे में पैसे लेते हैं। जो नहीं देता उससे झगड़ने भी लगते हैं। एक बार एक शख्स अड़ गया तो एक ने खुलेआम अपना घाघरा ही उपर को उठा दिया। देखने वाले हं..हं...करते रह गये लेकिन उसने सामने वाले को लजवा कर ही छोड़ा। दस रूपये की बजाय बीस रूपये झटक कर चल दिया। ये और इस तरह के वाकये किन्नर समुदाय के प्रति लोगों में अजीब सा संशय उत्पन्न करते हैं। ट्रैफिक सिग्नल पर कई बार इस समुदाय के लोगों को देखा है और कई बार उनमें आपस में मारपीट भी होती देखी है ( संभवत: एक दूसरे के कैचमेंट एरिया में अतिक्रमण को लेकर मारपीट हुई हो) ।
खैर, ईश्वरीय अन्याय के इन जीते जागते लोगों को देख एक ओर दया भी आती है तो थोड़ी सा अजीब भी लगता है। सरकार भी इस समुदाय के लिये कुछ रोजगारपरक या उनके अधिकारों के लिये कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बनाती दिखती ( यूं भी आम सहज जीवन वाले लोगों के कार्यक्रम बनाने में कौन सा बाकी उठा रखा है सरकार ने). समाज में भी एक नकारात्मक छवि सी बनी हुई लगती है। जाने कब तक यह धुंधलका छंटे।
वैसे मंदिरों या धार्मिक स्थलों के बाहर छिटपुट पैसा मांगते, यदा कदा नंगई फानते ये लोग मुझे राजनीति के उस समुदाय से ज्यादा ठीक लगते हैं जोकि मंदिर-मस्जिद के नाम पर धन उगाहने, लोगों में विद्वेष फैलाकर पॉलिटीकल गेन पाने के लिये राजनीतिक नंगई फानते हैं।
- सतीश पंचम
16 comments:
सफेदपोशों की राजनीतिक गुंडई तो सब सर माथे बैठा लेते हैं मगर इस प्रवंचित वर्ग पर अड़ियल बन जाते हैं! सही फरमाया !
यह हाल वहीं का नहीं लगभग सभी धार्मिक स्थलों का है यह दृश्य किसी सदन के सामने होता तो शायद कुछ ठीक लगता, वहाँ ५० रूपये की जगह शायद उन्हें इतने मिल जायें कि कभी कमाने की जरूरत ही न पड़े।
अपन का तो सिंपल रूल है कि भगवान् के दर्शन को त्यौहार या छुट्टी के दिन नईं जाने का.
बोले तो, अपुन ने भगवान् से सोलिड डील कर रक्खा है. जब खाली मिलेगा तभीच्च मिलने को आएगा.
एक तो अपनी कम ही बनाती है "उनसे" फिर भी जब कभी गए मिलने तो सावन में बाबा के दर्शन नहीं किये और माई बिन्ध्बासिनी के भी..
मुम्बई में किन्नरों के गैंग और उनके बीच मठाधीशी को लेकर होने वाले खून-खराबे के किस्से भी बहुत प्रचलित हैं..
@ रोजगारपरक कार्यक्रम:
मुगल बादशाहों के हरम में इस समुदाय के लोगों को समुचित रोजगार मिला हुआ था।
एक पंजाबी लेखिका, नाम एकदम से कन्फ़र्म्ड नहीं है, की आत्मकथा पढ़ी थी और उन्होंने इसी समुदाय के एक सदस्य को अपने परिवार में डोमैस्टिक हैल्प कहिये या फ़िर परिवार का सदस्य, इस रूप में रखा था।
निशांत वाला सिंपल रूल अपुन का भी है। खुश होना होगा तो बिग बॉस अपने कर्मों से वैसे भी हो जायेगा, किसी खास दिन त्यौहार वाली कोई कंपल्शन नहीं।
जब कोई निवारण नहीं,
आक्रोश अकारण नहीं।
झमाझम बरसात में कल मै भी अपने मित्र के परिवार के साथ लाल बाग के राजा के दर्शनार्थ गया था . पुरे ९० मिनट लगे फूल माला और प्रसाद के चक्कर में. वापस आते समय इस प्रजाति के सदस्य ने मेरी भी जेब हलकी कराइ हीरानंदानी स्टेट में. .
मन्दिर के बाहर खड़े होकर आप इतने मांगने वालों से परेशान हो जाते हैं तो जरा सोचिए मन्दिर के अन्दर बैठा भगवान हजारों मांगने वालों से कितना परेशान होता होगा। वह किसके पास जाए फरियाद लेकर। कैसे बताए जनता को की भाई काम करो, मांगने से कुछ नहीं होता।
अजीत गुप्ता जी,
आपकी बात से आंशिक रूप से सहमत होते हुए मेरा मानना है कि मांगने मांगने में फ़र्क होता है। ईश्वर के पास जो जाता है वह एक तरह के विश्वास और आत्मबल पाने हेतु जाता है। उसे भी पता है कि बिना कुछ किये मिलने वाला नहीं लेकिन एक आस्था और आत्मिक संतुष्टि के लिये वह ईश्वर से मांगता है, मन्नतें रखता है। लेकिन इन किन्नरों के मांगने में कहीं कोई ऐसी बात नहीं होती वरन एक किस्म की गुंडई और सामने वाले की छीछालेदर कराने सरीखी बात होती है जिससे मजबूरन पब्लिक बचने हेतु जेब ढीली करती है। और यही इन किन्नरों का मोडस ओपरेंडी भी होता है। इसे मांग न कहकर वसूली कहना ज्यादा ठीक रहेगा।
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वैसे मंदिरों या धार्मिक स्थलों के बाहर छिटपुट पैसा मांगते, यदा कदा नंगई फानते ये लोग मुझे राजनीति के उस समुदाय से ज्यादा ठीक लगते हैं जोकि मंदिर-मस्जिद के नाम पर धन उगाहने, लोगों में विद्वेष फैलाकर पॉलिटीकल गेन पाने के लिये राजनीतिक नंगई फानते हैं।....
मेरे ख्याल से दोनों गलत हैं.दोहन किसी भी रूप से अच्छा नहीं है.
दर्शन....वर्शन....विचार...सिचार
सब मिलाकर डाला जाये अचार! :)
रोचक दर्शन !
मंदिर जाने के लिए बहुत सी बाधाएँ तो पार करनी ही पड़तीं हैं.जो सहज मिल जाए उसमें पुण्य कहाँ?
घुघूती बासूती
अंतिम पैरे से शत प्रतिशत सहमत हूँ....
प्रकृति ने इनके साथ जो किया सो किया...धरती पर इनके लिए भीख मांगने के अलावे कोई आप्शन नहीं...
किन्नरों का आतंक मुंबई से मप्र के बीच काफी ज्यादा देखा है.
आखरी पैरे से पूर्णतः सहमत.
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