कहा गया है कि हमेशा अपनों से उंचो की तरफ ही सोचते रहोगे तो हमेशा दुखी रहोगे, कभी अपनों से पीछे वालों के बार में सोचो तो तुम्हें एहसास होगा कि तुम कितने सुखी हो।
यहां इस पोस्ट में एक पति अपनी पत्नी को चाशनी के टुकडों में अपनी बात समझा रहा है। अपनी कमी, अपनी नाकामी वह खुद जानता है लेकिन जो उसके बस में नहीं है वह चाशनी के टुकडों में लपेट कर बता रहा है।
चाशनी के टुकड़े.....जिसके बारे में मेरा मानना है कि हर किसी इंसान में इस तरह की चाशनी अक्सर बनती बिगडती रहती है। समय और परिस्थितियों के अनुसार यह कभी गाढ़ी तो कभी पतली होती रहती है।
जीवन के इन्ही सुख – दुख की बातों को बयां करती पोस्ट है - चाशनी के टुकड़े ।
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निखिल और अनिता दिख नहीं रहे।
अरे ये क्या ? अब तो आयुश बडा हो गया है। दुसरी कक्षा में जाने लगा है लेकिन तुम हो कि अब तक उसे अपना दुध पिला रही हो। अरे अब तो रोक दो अपना दुध पिलाना। बाहर से जब आता हूँ तो ये वहां लटका मिलता है।
तुम ही बताओ अब मैं क्या करूँ ? न पिलाउं तो लगेगा उधम मचाने। कल रोते रोते सारा बदन जमीन पर लोटकर गंदा कर लिया था इसने। वो तो मैंने रोक लिया नहीं तो नारियल तेल की पूरी शीशी पानी में उडेलने पर तुला था।
बहुत बदमाश हो गया है। कुछ उपाय क्यों नहीं करती ?
कैसा उपाय ?
अरे वही जो मिसेज पुरी ने अपनाया था, मिर्ची वाला।
मतलब ?
अरे उनका लडका बंटी भी मिसेज पुरी का दूध काफी बडे होने तक पीता रहा था। बहुत उपाय किया, लेकिन मजाल है जो बंटी अपनी मां की छाती चिचोरना छोड दे ?
तब ?
तब क्या ? मिसेज पुरी ने अपने निप्पल्स पर मिर्ची वगैरह रगड लिया। और जब भी बंटी पीने आता उसे तीखा लगता।
धीरे धीरे उसने खुद ही छाती का दूध पीना छोड दिया।
तुम्हे कैसे पता ?
अरे मिस्टर पुरी ही तो बता रहे थे।
अच्छा तो ऑफिस में आजकल यही सब बोलते बतियाते टाईम पास हो रहा है।
अरे टाईम पास कैसा, वो तो ऐसे ही बातों बातों में मैने अपने आयुष की अब तक छाती का दूध पीने वाली बात छेड दी तो मिस्टर पुरी ने खुद ही अपने बंटी का हवाला दिया।
तो, तुम क्या चाहते हो हम भी अपने आयुष के लिये मिर्ची का लेप लगा लें।
हम नहीं सिर्फ तुम।
अच्छा हुआ जो बता दिये नहीं तो मैं तो तुम्हें भी गिनने वाली थी।
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अरे क्या आज तुमने वो नुस्खा अपनाया ।
तुम्हारे नुस्खे सिर्फ तुम्हारे दोस्तों के यहां ही कामयाब होंगे।
क्यों क्या हुआ
होना क्या था। मैंने मिर्ची को तोडकर जैसे ही अपनी छाती में लगाया जलन से जैसे जान निकल गई।
तब।
तब क्या, जैसे तैसे सह कर मैं मिर्ची लगी छाती लिये बैठी थी कि तुम्हारे लाट साहब जिद करने लगे कि दुद्धू पीना है।
तब।
मैंने भी सोचा, लो पी लो, इसी बहाने मेरे इस नये तरीके का असर भी देखूँगी।
तब क्या हुआ ।
होना क्या था, जैसे ही मेरी छाती आयुष ने अपने मुंह से लगाई सीसी करके दूर हट गया।
अरे वाह। फिर।
फिर क्या, कहने लगा मम्मी दुद्धू तीता है.....धो कर आओ।
क्या।
हां और क्या। आये बडे नुस्खे वाले।
मतलब ये उपाय भी फेल हुआ समझो।
इसमें समझना क्या है, फेल हो गया कि ।
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अरे सुनो, आज आयुष ने मेरा दूध नहीं पिया ।
क्यों, क्या हुआ।
अरे, वो अठारह नंबर का पोलियो वाला लडका है न, निखिल।
हां हा तो।
तो वही आज हमारे बिल्डिंग के नीचे से जा रहा था। उसे लंगडाता जाता देख आयुष पूछ बैठा कि वो लंगडा कर क्यों चल रहा है।
तब।
तब मुझे न जाने अचानक क्या सूझा मैंने फट से कह दिया कि वह अपनी माँ का दूध स्कूल जाने के लायक उम्र होने तक
पीता था, इसलिये भगवान ने उसे पोलियो दे दिया।
अरे वाह, फिर।
फिर क्या......आज शाम के सात बज गये अब तक उसने दूध पीने की जिद नहीं की।
चलो अच्छा है। यही सही। मालूम होता कि पोलियो के डर के कारण ये छाती का दूध पीना छोड देगा तो कब का इस उपाय को अपना लेता।
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सुनो, घर में चावल नहीं है, राशन नहीं है......कुछ भी तो नहीं है। न जाने कौन सी कमाई करते हो कि पूरा ही नहीं पडता।
अरे तो कमा तो रहा हूँ, जितना हो सकता है कोशिश तो कर ही रहा हूँ। ये तो है नहीं कि बैठा हूँ।
आग लगे तुम्हारी कमाई में। न खुद का घर है न ढंग का सूकून। हर ग्यारहवें महीने देखो तो घर बदलना पड रहा है। आखिर तुम्हारे साथ के सब लोगों का अपना मकान हो गया है। एक तुम हो कि अब तक किरायेदार बने घूम रहे हो।
आखिर वो सब भी तो तुम्हारी तरह ही काम करते हैं।
अरे यार तुम्हारा तो हमेशा का रोना है। ये नहीं है, वो नहीं है। अभी एक हफ्ते हुए पाँच हजार दिये थे। इतनी जल्दी स्वाहा हो गये।
पांच हजार दिये थे तो क्या दबा कर बैठ गई हूँ। घर में खर्चे नहीं हैं, मुन्ने की फीस नहीं भरनी है कि घर में खाना राशन पानी बिना कुछ लगे ही आ जाता है। आये हो बडे हिसाब करने। मुंह देखो जरा।
अब तुम बात को बढा रही हो।
मैं बढा रही हूँ कि तुम बढा रहे हो। पाँच हजार रूपल्ली क्या दे देंगे लगेंगे हिसाब करने। आग लगे ऐसी कमाई में।
मैं कहता हूँ चुप रहो।
नहीं चुप रहूँगी। चुप रहो चुप रहो कह कह कर ही तो अब तक मनमर्जी करते आये हो। कह रही थी कि चैताली नगर में प्लॉट मिल रहा है ले लो न दाम बढ जायगा, लेकिन मेरी सुनो तब न। आज वहीं पर शुक्ला जी ने लिया है कि नहीं। ठाट से रह भी रहे हैं और मलकियत की मलकियत बन गई है। औऱ यहाँ देखो तो हर ग्यारहवें महीने गमला दूसरों को देते चलो। थू है तुम्हारी कमाई पर।
मैं अब भी कहता हूँ चुप रहती हो या नहीं।
और वो तुम्हारा चपरासी कनौजीलाल को ही देख लो। रह रहा है न अपने खुद के घर में। भले ही झुग्गी ही सही पर खुद का तो है। और वो सिन्हा, कैसे अपने गैलेक्सी टावर में शान से रह रहा है। काम तो तुम्हारे ही साथ करता है पर ठाट देखो।
अच्छा अब तुम मेरा मुँह न खुलवाओ।
मुँह न खुलवाओ मतलब। कुछ बाकी करम रखे हो अभी जो कह रहे हो कि मुँह न खुलवाओ.......।
ओफ्फो......बैठो.......पहले बैठो। शांत हो जाओ। मेरी बात सुनो।
नहीं सुनूँगी। यही सब कहते कहते.....।
अरे सुन तो लो
कहो, क्या कहना चाहते हो।
तुम जो कह रही हो कि शुक्ला जी ठाट से हैं तो मुझसे पूछो कि वो कितने ठाट से हैं। तीन लडकियाँ हैं उनके। हर एक की शादी कराते कराते उनकी कमर टूट जाएगी। और उसमें भी जो दूसरे नंबर की लडकी है उसे तो तुम जानती है कि चल फिर नहीं सकती। अब उसका टेन्शन अलग झेलना पडता होगा शुक्लाजी को। इसकी शादी होगी कि नही, होगी तो कितना लेना देना पडेगा। दुल्हा कैसा होगा, कहाँ का होगा। तीनों के घर अच्छे मिलेंगे कि नहीं वगैरह...वगैरह। अब तुम ही बताओ, उन लोगों से हम ठीक हैं कि नहीं। हमारे तो दो बेटे और एक बेटी है। भगवान की दया से सब तंदुरूस्त हैं। आखिर सोचो, हम ज्यादा खुशहाल हैं कि वह शुक्ला।
और वो कनौजिया की जो बात करती हो कि उसके पास खुद का घर है, मानता हूँ। कभी देखा है तुमने कि कैसा घर है उसके पास। झुग्गी झोपडीयों से अब तक शायद तुम्हारा पाला नहीं पडा। वहाँ तो दिन में ही कोई जाने ,को तैयार नहीं होता औऱ तुम वहां रहने की बात करती हो। सोचो, सारे अपराध , सारी गंदी चीजें वहीं से तो निकलती हैं और तुम वहां रहने की बात कह रही हो। क्या हो गया है तुम्हें। अरे ऐसी जगह घर लेकर रहने से तो अच्छा है बिना घर लिये रहें।
और जो सिन्हा की बात करती हो तो उसके तो बच्चा ही नहीं हो रहा। हर हफ्ते छुट्टी लेता है कि वाईफ को डॉक्टर के पास ले जाना है दिखलाने। अब तक पचासों हजार रूपये तो फूँक दिये है उसने लेकिन मजाल है जो बच्चा हो जाय़ ।
अब तुम बताओ, तुम्हें ये इतने सारे बच्चे पैदा करने में कितना खर्चा करना पडा। बताओ तो।
हटो, बडे आये समझाने वाले।
अरे मैं मजाक नहीं कर रहा। सच कह रहा हूँ। उन लोगों से अपने आपको तुलना करना छोड दो। वो हमारे सामने कहीं नहीं ठहरते।
मैं वो तो नहीं कह रहा।
पर मतलब तो वही है।
अरे तुम तो खामखां , राई का पहाड बनाने पर तुली हो। चलो छोडो, चाय बनी हो तो एक कप पिला दो। जब से आया हूँ, तुम्हारे ही पचडें में पडा हूँ।
देती हूँ चाय.........वो तुम क्या कह रहे थे सिन्हा जी के बारे में, पचासों हजार फूँक दिये हैं बच्चा पैदा करवाने में।
मम्मी...मम्मी.......भईया मुझे मारता है।
क्यों मारते हो निखिल.....खेलो बेटा खेलो आं........अनिता बेटी आयुष के साथ खेलो.....निखिल , बेटा तुम भी खेलो....झगडा मत करो आपस में। सुनिये......चाय दूसरी बना दूँ....ये चाय काफी देर पहले की है।
क्या बात है, अब तो बडा प्यार आ रहा है मुझपर.........।
अब हटो भी!
- सतीश पंचम
( यह आखरी वाला चित्र मैंने नाव से गोमती नदी पार करते समय खींचा था.....नाव के इस चित्र मे मल्लाह सहित चार लोग हैं..........हर एक शख्स अलग अलग दिशा में देखते हुए कुछ न कुछ सोच रहा हैं........जीवन नैया में हम लोग भी अक्सर इसी दौर से गुजरते हैं ........हम सभी लोग इस संसार रूपी नाव में एक साथ हैं....चुप हैं.....हमारे मन में भी अक्सर कुछ न कुछ चल रहा होता हैं.....चुप चाप......और चाशनी के टुकड़े भी बन रहे होते हैं........चुप चाप )
9 comments:
कई भाव आये और गए ....बस !
सच है, ऊपर वालों से जितना तुलना होगी, दुख की मात्रा उतनी ही बढ़ेगी।
बहुत ही सुंदर कहानी, जो इसे जिन्दगी मै उतार लेगा सदा सुखी रहेगा, धन्यवाद
बिल्कुल आम आदमी के भावों को उकेर दिया जो घटनाएँ हर इंसान के जीवन में होती हैं, बहुत ही सुन्दर चित्रकारी
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आप को बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं
बहुत ही सहज कहानी, शुभकामनाएं.
रामराम
चित्र ओर चित्र की व्याख्याँ ....कहानी से भी बेहतर लगी.....बेमिसाल चित्र है .....
गिलास आधा खाली कहने वालों की जमात ही अलग है.
bahut khoob
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