ऐसी ही एक दिलचस्प घटना मेरी ग्राम्य यात्रा के दौरान घटी जब भरी दुपहरी एक जगह जनगणना कार्य के दौरान फार्म में किसी महिला का नाम लिखने की बारी आई। महिला का नाम और उम्र का कॉलम लिखने के दौरान बात चली कि फलांने की पत्नी का क्या नाम है..... यह कौन गाँव से ब्याहकर आई हैं ...... मायका किधर से हैं......। पूछने पछोरने पर घरवाले कुछ असहज से हो गए और बात को वहीं खत्म किया गया।
बाद में एक साथी से पूछा तो पता चला कि यह महिला पूँछ उठावन टाईप है।
सुनकर एक बार झटका सा लगा कि.... क्या कहा जा रहा है ....पूँछ उठावन ?
ज्यादा कुरेदने पर पता चला कि फलां महिला की यह चौथी या पांचवी शादी है। इसके पहले की शादियां उसके चाल चलन और संबंधों के कारण न टिक पाईं। कई लोगों से संबंध की जानकारी होने पर छुटा छूटी हो गई।
तो इस घर में विवाह कैसे हो गया ?
इस घर में इसलिए विवाह हो गया क्योंकि लडके की उम्र निकली जा रही थी.....कोई इसे अपनी लड़की देने को तैयार न था......लड़के का घर भी कुछ ठीक नहीं ....और ऐसी ही तमाम बातें थी...जिस वजह से लड़के ने जैसे तैसे विवाह कर अपनाया.....और एक तरह से द्विपक्षीय उद्धार किया गया।
अब ?
अब दोनों जन कहीं बाहर शहर वगैरह में रहते हैं.....लडका कहीं छोटा-मोटा.... काम-ओम करता है मिस्त्री वगैरह वाला।
यह सब बातें जानकर एक बारगी लगा कि यार यह गॉसिप है या सच.....लेकिन गाँव वालों की बातें.......।
आगे एक जगह जाने पर सभी घरवालों का नाम आदि लिखा गया...चलने को हुए तो एक जन ने कहा कि फलांने का नाम छूट रहा है। घरवाले ने एतराज किया कि उनका नाम क्यों लिखा जाय....कल को कहीं कानूनी पचड़ा न आ जाय।
बात खोली गई तो पता चला कि घर मालिक की साली का तलाक हो गया है और उसे अपनी बहन के यहां यानि इस घर में रहना पड़ रहा है। अब ऐसे में जनगणना में मकान नंबर....परिवार के मेंम्बर आदि लिख देने पर कहीं को कल साली के बच्चों वगैरह को लेकर कोई कानूनी पचड़ा न आ जाय। इस डर से घर मालिक हिचकिचा रहे थे नाम लिखवाने में। तब उन्हें समझाया गया कि कोई कानूनी पेंच इस जनसंख्या फार्म से नहीं आने वाला क्योंकि इसमें रिश्ते वाले कालम में साफ साफ लिखा जायगा कि - मुखिया की पत्नी की बहन।
सो यह सब लिख-उख कर काम चलाया गया।
लेकिन इसी मकान नंबर पर छिड़े बहस पर बात ही बात में एक और दौर हंसी मजाक का भी चला।
किसी ने कहा कि - सुनने में आया है कि जनगणना वाले लोगों से यह कह कर पैसे लेते हैं कि लाईए आप का मकान नंबर सोझ ( ठीक) कर दूँ ताकि जो आपके भाई से मुकदिमा वगैरह चल रहा है....आपके फेवर में हो जाय। थोड़ा खर्च वर्च हो जाय बस।
वहीं किसी ने कहा कि- कुछ लोग तो सामने से आकर कहते हैं कि भाई मेरा यह मकान नंबर वगैरह डाल दो....सौ-पचास ले लो और क्या।
यह बातें मजाक मजाक में ही लोग बोल रहे थे और कहीं खूब हंसी ठट्ठा हो रही थी।
बात की बात मे इंसानों की दो कैटेगरी मान ली गई ।
जो लोग प्रगणक के कहने से पैसे देते हैं कि इससे उनका काम हो जायगा वह - जाहिल और जो लोग सामने से आकर प्रगणक को पैसे का लोभ देते हैं वह - चालू।
तो भईया....यह तो मजाक मजाक में हुई बातें थी....लेकिन कहीं न कहीं यह होता तो होगा ही......मेरे गाँव में नहीं तो किसी और के गाँव में........तभी तो गाँव वाले आपसी हँसी-पडक्का में यह बातें कह सुन रहे थे।
आगे और जाने पर ऐसी न जाने कितनी दिलचस्प बातें.....दिलचस्प किस्से सुनने मिलते लेकिन एक तो भरी दुपहरी और उपर से भूख की कुलबुलाहट ने घर लौटने की इच्छा जागृत की। अगले दिन मुझे वापसी के लिए ट्रेन भी पकड़नी थी। सो लौट पड़ा गमछा बाँधे-बाँधे ।
लेकिन इतना तो तय है कि यदि साहित्यकार, रिपोर्टर, लेखक आदि कभी कहानी का रोना रोएं.....रोचकता की कमी का रोना रोएं तो एक बार उन्हें जरूर किसी इस तरह के अभियान में साथ हो जाना चाहिए.....। परिवार.....बिखराव....प्रेम प्रपंच.....और ऐसे तमाम मुद्दे हैं जो उन्हें यहां से सीधे सीधे गाँव के जरिए कन्टेंट दे सकते हैं.....लेकिन बात वही है कि एसी ऑफिस का सुख छोड़कर .....लूची वाली आँच झेलने के लिए यह जमहत कौन उठाए ?
मीडिया में जो चल रहा है....जैसा चल रहा है चलने दिया जाय.....यू ट्यूब से कंटेंट देकर....नाग नागिन के विवाह दिखाकर....चमत्कार महिमा बताकर.....गणेशवाणी सरीखी बातें बताकर.....काली गाय को पके आलू खिलाकर.....कल्याण कराकर........या फिर सल्लू.....कैट के किस्से सुनाओ.....की फर्क पैंदा ए.....चल्लण दो ऐंवे ही :)
- सतीश पंचम

समय - वही, जब चाँद की गठरी उठाकर कोई चला जा रहा हो और धरती रास्ता रोक कर कहे- कभी मेरी भी गठरी उठा कर देखो......चाँद से छह गुना भारी है।
( अपनी आँख की जद तक गमछा बाँधे हुए मैं भरी दुपहरिया गाँव गाँव तस्वीरें लेते हुए जब घूम रहा था तब उसी दौरान साथ चल रहे प्रगणक ने मेरी भी एक तस्वीर खेंच ली....उपर गमछा बाँधे हुए मेरी वही तस्वीर है )
( ग्राम्य सीरीज चालू आहे......)
23 comments:
जबरदस्त और दिलचस्प वर्णन ।
Oh...mai swayam gramin kshetr me rah chuki hun,aur janti hun,ki,gaanv ke log qatayi bhole bhale nahi hote!
Aapki lekhan shaili badi dilchasp hai..!
बिलकुल सही कह रहे हैं. गाँव की याद आने पर कई चरित्र आँखों के सामने घूम जाते हैं जिनके जीवन पर बड़े उपन्यास लिखे जा सकते हैं. आपकी पोस्ट बहुत मस्त है. ग्राम्य सीरीज की और पोस्ट की तरह.
किसी भी को जीने के काबिल मुकम्मल यही गाँव ही बनाते हैं मुझे उन सभी से सहानुभूति है जिन्हें ग्राम्य जीवन नसीब नहीं हो पाया !
हमारे लिये तो गाँव में रहना सपने जैसा ही है। बस जल्दी से साकार करना चाहते हैं।
सतीश जी, हमारी वैकैबलरी में शब्द वृद्धि करने का धन्यवाद। वैसे ’पूंछ उठावन’ संज्ञा है या सर्वनाम?
दो साल से एक गांव में कार्यरत हूं, सहमत हूं आपसे कि जीवन के विविध रंग पूरी समग्रता से बिखरे होते हैं, ऐसी जगह पर। हां, अपने बहुत से भ्रम, मसलन गांव के सभी वासी बहुत सीधे, भोले, सरल होते हैं आदि आदि धुल गये हैं, लेकिन फ़िर भी कुछ बात तो है। वक्त ने मौका दिया तो हम भी लिखेंगे कभी कुछ, बेशक आपकी लाईन को बड़ी करने के लिये ही।
कुछ दिन पहले एक ग्राम्य महिला का अप्रचलित सा नाम सुनकर मेरे साथी ने पूछा कि ये कैसा नाम है?
जवाब आया, "बाबूजी, पटवारी का बिगाड़ा गाम और मां बाप का बिगाड़ा नाम, फ़िर नहीं सुधरता।"
बाकी, गमछे में एकदम ’छोरा गंगा किनारे वाला’ लगते हैं आप। अब भाईजी, गलत मतलब मत निकाल लेना, साली जब से दोस्ताना फ़िल्म आई है और कोर्ट ने कुछ परमीशन वगैरह दी है, खुलकर किसी की तारीफ़ भी नहीं कर सकते:)
संजय जी,
लिखिए....आप भी लिखिए....गाँव के हालात और वहां के लोगो से परिचय होने के बाद मेंरा यह भ्रम कई साल पहले ही टूट गया है कि वहां के लोग सीधे और सरल-भोले भाले होते हैं....और कुछ कुछ तो ऐसे हैं कि खड़े खड़े ही किसी शहरी को बेच डालें और उसे पता भी न चले।
एक उदाहरण दूंगा - जब चकबंदी होती है तो उस वक्त एक आम शहरी को पता नहीं होता कि उसकी जमीन का कौन सा खसरा खतौनी है और उसे किस तरह हैंडल करना है। एक विश्वास के तहत वह गाँव के ही किसी को अपना चकबंदी का कामन सौंप कर कुछ पैसे वैसे देकर निश्चिंत हो वापस चला जाता है लेकिन जब चकबंदी के बाद कुछ समय बाद आता है तो उसे अपना खेत किसी उड़ान चक के तहत गडही या उसर के पास मिलता है या फिर किसी विवादित जगह पर....जबकि जिस गाँव वाले के पास चक का जिम्मा छोडा गया था वह चक चौचक बैठी है।
और यह और इस तरह के तमाम अनुभव आपको लगभग हर शहरी से सुनने मिल सकते है जिसका गाँव से ताल्लुक रहा हो।
कई बार तो इतना महीन पीसते हैं कि कुछ कहते भी नहीं बनता और कुछ करते भी नहीं बनता.....साहित्य में और फिल्मों में अक्सर
गाँव वालों को बेवकूफ या भुच्चड़ टाईप दिखाया जाता है लेकिन यह छवि अब पुरानी हो चुकी है।
और हाँ संजय जी,
गँवई लेखन के एक सशक्त हस्ताक्षर विवेकी राय जी से मेरी करीब चार पांच महीने पहले एक बार फोन पर ही बातचीत चल रही थी... तब विवेकी राय जी ने कहा कि गाँव अब गाँव नहीं रहे.....अब वह शहर से आगे निकलने की होड़ में एक बेढब सभ्यता बनकर रह गए हैं।
उनकी यह बात मुझे शत प्रतिशत सच लग रही है।
मस्त लिखा है जी। शुक्रिया।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे ०४.0७.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/
भाई विवेकी राय जी के नाम से याद आया, रश्मि रविजा जी के गांव के हैं विवेकी जी, आज रश्मि जी नें अपने ब्लॉग में अपने गांव का फोटू लगाया है.
सतीश जी आपने ग्राम्य सिरीज टरेन में चढ़ने से लेकर आज तक बहुत रोचक ढ़ग से लिखी है इस कारण हम आपके संगें संग चल रहे हैं, आप लिखते रहे .... चालू आहे ... हम पढ़ रहे हैं बहुतै मजा आ रहा है. बिना गांव गए गांव का मजा ले रहे हैं जइसे आपने बताया कि लोगन यू ट्यूब में लेते हैं. :)
ये तो कुछ हमारे तरफ के गाँव लगते हैं...कहाँ से रिपोर्टिंग चल रही है ये सतीश जी ?
वैसे ये बात सही है कि गाँव गाँव नहीं रहे अब ..बहुत बदलाव आ गया है
राम त्यागी जी,
ये रिपोर्टिंग मेरे पैतृक गाँव और कुछ आसपास के गाँवों की हो रही है जो कि जौनपुर ( उ.प्र) में है। लेकिन यह स्थिति अमूमन हर ओर है चाहे जौनपुर हो या खड़गपुर....चाहे भटिंडा हो या भरतपुर.....सब जगह हालात एक से हैं :)
फोटो में तो वाकई मस्त लग रहे हैं।
गाँव हों या झोपड़पट्टी - कथा कहानी के मसाले बहुतायत मिलेंगे। कहीं भी जहाँ जनसंख्या की विविधता रहेगी, सृजन की सम्भावनाएँ रहेंगी। वैसे महानगर भी भरपूर सामग्री उपलब्ध करा सकते हैं। नज़र खुली रखिए
।
तो अगली सीरीज धारावी पर ?
पूँछ उठावन
इतनी मौलिकता व दृश्य प्रवणता केवल आंचलिक बोली में ही आ सकती है ।
बिलकुल सही तस्वीर खिची है गाँव की |गाँव अब गाँव नहीं रहे |ये हर व्यक्ति महसूस करने लगा है |हमे तो आकर्षित करती है वहा की प्राक्रतिक सुन्दरता कितु वो दिन दूर नही जब हम शहर के बगीचों में ही वो सब चीजे धुन्ढेगे |
गाँव के युवा मेहनत से अब जी चुराने लगे है और इसीलिए गाँव की तस्वीर बदलती जा रही है |और ये तस्वीर एकदम नहीं बदली है जब से सरकार ने गाँव की सुध लेना शुरू किया है अपने वोट की खातिर तब से ही तस्वीर बदरंग होती जा रही है
और वोट के साथ साथ ही जातिवाद की तस्वीर और ज्यादा उभर कर सामने अ रही है|और हर व्यक्ति सोचने लगा है गाँव का ?की मै भी राजनीती कर सकता हूँ |
सतीश जी,
मैं खुद अपने कमेंट में लिखना चाह रहा था कि जिस गांव में मेरा बैंक है, वह किसी छोटे मोटे कस्बे से कम नहीं है, वाकई गांव अब गांव नहीं रह गये हैं।
दिल्ली पब्लिक लाएब्रेरी से खोज खोजकर जिन लेखकों की पुस्तकें पढ़ता रहा, उनमें आदरणीय विवेकी राय जी और रामदरस मिश्र जी शायद सबसे प्रभावशाली लगे मुझे(हिन्दी भाषी गांव देहात की बात करें तो)। यहां आप और गिरिजेश जी वही स्थान रखते हैं।
यहां आकर सबसे बड़ी दिक्कत जो हुई, वो हिन्दी पुस्तकों की अनुपलब्धता है, हमें आदत है खरीदें एक और पढें पचास।
आपको कभी मौका मिले तो पंजाबी के एक लेखक हुये हैं, बलवंत सिंह, उन्हें पढ़ देखियेगा। बहुधा लोग बलवंत गार्गी से कन्फ़्यूज़ कर जाते हैं, लेकिन ये अलग हैं। पंजाब(पुराने समय के) के गांवों की संस्कृति बहुत अच्छे से व्यक्त होती है इनके उपन्यासों, कहानियों में। रावी-पार, ऐली ऐली, चक्क पीरां दा जस्सा आदि कुछ रचनायें उन्होंन लिखी हैं। विडम्बना है कि मैं यहां किसी से पूछता हूं तो लोगों को उनके बारे में जानकारी ही नहीं है।
कुछ दिनों के लिये गैर हाजिर रह सकता हूं, लौटकर ग्राम्य सीरिज़ बांचेंगे, चलाते रहिये, आनन्द आ रहा है।
धन्यवाद ले लिया है, चौबीस किलो का:)
संजय जी,
शायद मेरे स्कूली दिनों में बलवंत सिंह जी का ही पंजाबी में एक चैप्टर था जिसमें गाँव में नहाने के लिए और शौचालय आदि के लिए आड़ की जरूरत लिखी गई थी और उसी में जिक्र था कि बोरे की आड़ गाँव के लिए कितनी जरूरी होती है....ठंड में पशुओं के लिए....प्राणीयों के लिए....
वैसे मैं पंजाबी के कुलवंत सिंह विर्क को खूब पढ़ता हूँ। वेब पर उनकी कुछ कहांनियां इस लिंक पर उबलब्ध हैं।
गुरूमुखी में पढ़ना चाहें तो वह ऑप्शन भी है और अगर देवनागरी में पढ़ना चाहें तो वह ऑप्शन भी है। फिलहाल आप सभी की जानकारी के लिए यह लिंक यहां दे रहा हूँ।
http://www.ksvirk.in/davnagri/articles.html
पूंछ उठावन ...हा हा हा ....ऐसे शब्दों के लिए तो धूप में तपना ही होगा .
शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ-साथ जो बात लोग-बाग़ पहले सीखते हैं वो है मक्कारी. अब गावों के लोग भी पढ़े लिखे हो चुके ..मोटरसाईकिल उठाई शहर गए कुछ नया सीखे ..नमक मिर्चा लगाए और गाँव आकर सभी को सिखा दिए. जिन परिवारों में अच्छे संस्कार हैं ..धार्मिक हैं , गलत करने पर पाप का भय है या इतने पढलिख चुके हैं की जानते हैं की गलत काम करने का नतीजा अंत में गलत ही होगा वे ही बचे रह जाते हैं...क्या गाँव क्या शहर अच्छे-बुरे लोग हर जगह हैं.
..जनगणना करते-मनगणना भी करने लगे कवि जी .
..सुंदर पोस्ट.
प्यारे भाई सतीश जी
आप लिखते इतना शानदार है कि मत पूछिए..
अपना देशज अन्दाज कभी मत छोडि़एगा.
यही आपकी ताकत भी है और मैं क्या बहुत से लोग इसी ताकत के बूते आपके पास खींचे चले आते हैं। अच्छा लगा।
गिरिजेश जी,
धारावी पर तो स्लमडॉग रची जा सकती है फिर एक पोस्ट क्या चीज है :)
वैसे यह बात सच है कि जहां लोगों की विविधता होगी वहां ढेरों कहानीयां मिलती रहेंगी....लेकिन मेरे हिसाब से गाँवों पर रचनाएं नेट पर बहुत कम हैं.....बाउ ...नींबुआ की झीरी...बारात....नाव...बिच्छूदंश......ग्राम्य सीरीज ....गठरी पर आया लिट्टी चोखा आदि जैसी रचनाएं बहुत कम दिख रही हैं नेट पर...... ऐसे में इस खाली स्थान पर खेलने में अलग ही आनंद आता है :)
बाँध ही लिया न गम्च्छा सर पर ................
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