जिस काम की आदत न हो और वही काम अदबदाकर किया जाय तो उसका कुछ न कुछ उल्टा असर, हो जाता है।
ऐसा ही कुछ मेरी इस बार की ग्राम्य यात्रा के दौरान हुआ।...... हुआ यूँ कि घर में गेहूँ के करीब आठ-दस बोरे थे। और भी गेहूँ एक दूसरे खलिहान से आने वाला था दोपहर तक। इससे पहले कि नया गेहूँ आकर जगह छेंके…..पुराने पड़े गेहूँ को लोहे के कंडाल ( बड़े बड़े ड्रम) में पलटना था।
अब गाँव में ऐसे फुटकर कामों के लिए काम में लिए जाने वाले हलवाहे या मजदूर कम ही मिलते हैं। नरेगा सबको खींच ले गया है। गाँव में बैठे बैठे समय व्यतीत हो रहा था.... सो मैंने सोचा कि क्यों न मैं ही इन गेहूँओं को कंडाल में पलट दूँ। और लग गया इस काम में। एक दो आस पड़ोस के युवा छोकरे जो मेरे भतीजे लगते थे उन्हें पकड़ा। एक साईकिल ली। बोरों में से आधे आध पर एक दूसरे बोरे में हिस्सा किया ताकि गेहूँ ले जाने में आसानी हो…..।
बड़ी मशक्कत के बाद एक छोटा बोरा साईकिल के कैरियर पर रखा। अम्मा बाबू बिगड़ते रहे कि बिना आदत के मत जुटो। नरा वगैरह उखड़ जाएगा। लेकिन मुझ पर तो जवानी चढ़ी थी। चल पड़ा बोरे को साईकिल के कैरियर पर रख। कंडाल लगभग पचास साठ मीटर की दूरी पर दूसरे घर में रखा था। इधर कैरियर पर रखे भारी बोझ की वजह से साईकिल कभी-कभार उलट कर खड़ी होने का नाटक करती रही। कभी हैंडिल दाएं घूमता तो कभी बांए……। मदद कर रहे भतीजे के साथ किसी तरह गेहूँ से लदा बोरा कंडाल के पास पहुंचाया।
अब असली परेशानी शुरू हुई। कंडाल की हाईट मेरे कंधे तक थी और उसमें गेहूँ पलटने का मतलब था कि बोरे को कंधे तक की उंचाई तक उठाना। किसी तरह यह भी किया…… । एक दो बोरे तक तो कंधे की उंचाई पर बोरा उठाया ….लेकिन तीसरे चौथे बोरे में हालत खराब हो गई। ज्यों ही बोरे को कंधे तक की उंचाई पर ले जाता दम छूट जाता और बोरा फिर वहीं नीचे। इधर भतीजा हंसता,कि क्या चाचा….यही है बबंई की खवाई……।
खैर, किसी तरह आगे के सात आठ बोरे तक खींच ले गया। अम्मा अब भी बिगड़ रही थीं कि क्यों बहादुरी दिखा रहा है बिना आदत के। हर बार आना जाना जोडकर पचास पचास करते सौ मीटर का चक्कर लगता। अब बचे दो बोरे…..लेकिन तब तक कंडाल भर गया था….बचे हुए बोरों को वहीं जमीन पर लिटा….मैं सुस्ताने लगा।
काफी देर सुस्ताया…..पड़े पड़े नींद भी आ गई। इस बीच मट्ठा आया……पिया गया।
लेकिन शाम तक मुझ पर इस बहादुरी का असर दिखने लगा। बदन में हरारत सी होने लगी और लगा कि अब बुखार बस चढा ही समझो। इधर अम्मा का बिगड़ना लाजिमी था। बार बार कह रही थी कि मना करने पर भी नहीं माना। अब जा दवाई करवा ।
अगले दिन चचेरे भाई के साथ डॉक्टर के यहां पहुँचा। वहां का माहौल देखकर थोड़ा बिदका…….ग्लूकोज की बोतल एक मरीज को चढ़ाई जा रही है लेकिन बोतल किसी स्टैंण्ड में न लटकाकर मड़ैया में लगी बांस की कउंच ( शाखा) से फंसा कर लटकाया गया है। एक दो खाली बोतलें, मडैया के थून्ह से सटी लटक रही हैं। पट्टी वगैरह का डिब्बा अधखुला चौकी पर रखा है।
किसी तरह डॉक्टर से मिलना हुआ। रोग बताने पर उन्होंने एक पर्ची दवा की बना कर दी। कहा बगल से ले लो। मैंने ध्यान दिया कि पर्ची पर डॉक्टर साहब ने गोल निशान बनाया …… उसके बाद दवाईयों के नाम लिखे। और मरीजों की पर्चियां देखा तो उन पर भी गोल निशान बना कर तब दवाई का नाम लिखा गया। मैं सोच में पड़ गया कि डॉक्टर तो Rx लिख कर किसी दवा का नाम लिखते हैं……कभी अपने यहां कोई शुम काम होने को हो तो हम भी ऊँ या शुभ लाभ लिखकर ही आगे कुछ लिखते हैं। लेकिन यह गोल क्यों लिखा जा रहा है……..मन में सवाल उठा कि पूछूँ लेकिन उस वक्त बीमार होने की वजह से मूड में नहीं था। सो न पूछा।
बगल की दुकान से पर्चा दिखाकर कुल चालीस रूपए की दवाई ले आया। डॉक्टर को दिखाया…..ठीक है….ऐसे ऐसे खाना…। पैसा देने लगा तो डॉक्टर ने नहीं लिया। कहा कि हो गया।
तब मुझे लगा कि शायद वह गोल निशान कुछ एक प्रकार का संकेत हो और इस डॉक्टर को बगल की दुकान से कमीशन वगैरह भी शायद मिलता हो। खैर, दवाई ले आया….। खाया और आराम किया।
थोड़ी देर बाद मन में एक सवाल उठा कि उस गोल निशान का कहीं कोई गूढ़ संकेत तो नहीं ठहरा। मन में फन्नी आईडियास आने लगे।
उन्हीं में से एक संकेत कह रहा था कि क्या पता डॉक्टर गोल निशान बना कर कह रहा हो कि बच्चू…..ये दुनिया गोल है।
तुमने मजदूर को पैसे नहीं दिए…..खुद ही काम में जुट गए……लेकिन उसी वजह से बीमार भी पड़े। अब बीमारी से ठीक होने के लिए मेरे पास आए हो। पैसे दे रहे हो….मैं अब वही पैसे अपने घर में काम कर रहे मजदूरों को दूंगा।
यानि घूम फिर कर पैसा गोल गोल घूमने के बाद फिर मजदूर के ही हाथ पहुँचा।
दुनिया गोल है यार……..समझा कर.....
- सतीश पंचम
स्थान – वही, जहां पर गेहूँ पीसने के लिये जंतसार का उपयोग नहीं होता .....
समय – वही, जब यौवन और अल्हड़ता का प्रतीक गुलाब अपने बगल में बैठे श्रम के प्रतीक गेहूँ से कहता.....क्या तुम कभी किसी के जूड़े में सजे हो ?
( पहले वाले चित्र मे लुंगी और टी शर्ट पहन गेहूँ ढोकर ले जा रहा हूँ.....दूसरा और तीसरा चित्र गाँव की निराली प्राकृतिक छटा को दर्शा रहा है जिसे मैंने अपने कैमरे में कैद किया.....और अंतिम चित्र वही पर्ची है जिस पर कि गोल का निशान बना कर दवा लिखी गई थी )
Tuesday, May 11, 2010
गेहूँ की लदवाई....कण्डाल....पर्ची... ग्राम्य सीरिज ......सतीश पंचम
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30 comments:
सुन्दर पोस्ट ..गोले की व्याख्या अच्छी लगी ..
कहीं ऐसा तो नहीं कि गोल निशान बोले तो गोली, कैपसूल के लिये दूसरा निशान और पीने वाली दवाई के लिये तीसरा कोई निशान...
शाहजहाँपुर में हमारे पडौसी रामआसरे डाक्टर कुछ इसी तरह का चक्कर चलाते थे जिससे कि कम्पाऊंडर एक बार चैक करने के बाद ही दवाई दे...वो इसलिये कि कम्पाऊंडर गांव का होता था तो छ: आठ महीने की ट्रेंनिंग के बाद अपने गांव जाकर डाक्टर बन जाता था...:)
गोल दुनिया का चित्र घूम गया गोले में.. :)
मस्त!!
वैसे दवा ने क्या असर किया महाराज?
@ समीर जी,
दवा तो ठीक थी। दो खुराक के बाद ही आराम हो गया था.....चमत्कार....
बाकि दो खुराक नहीं खाया....
@ नीरज जी,
क्या पता आपकी बात सच हो....कि कहीं गोले वगैरह का मतलब कोई विशेष दवाई तो नहीं ?
लेकिन वहां जितने भी दो चार लोगों की पर्चियां देखा सब पर गोले बने थे....
क्या पता सिरप वगैरह के लिये कोई बहता पानी या झरना आदि का निशान न हो :)
इसीलिये तो कहते हैं कि बड़ों की बात मान लेनी चाहिये हम भी इसीलिये कुएँ में मोटर ऊपर और नीचे करने की होसियारी नहीं दिखाते हैं, एक बार कोसिस की थी, तो हमारी तबियत भी बिगड़ गयी थी और अम्मा बाबू भी।
एक गोला मारा था मतलब सिंगल कमीशन होगा अगर दूसरा गोला होता तो इसका मतलब होता कि डबल कमीशन । सायद...
’आदमी जो कहता है, आदमी जो सुनता है,
जिंदगी भर वो सदायें, पीछा करती हैं’
और गा लो महाराज नरेगा के गीत।
सतीश जी, आपके गांव का चित्र बहुत सुन्दर लग रहा है, एकदम झक्कास।
दवा की पर्ची पर गोल निशान का मतलब और आपसे फ़ीस न लेना, आपस में संबंधित हैं।
वैसे,
एक बात के लिए इन ग्रामीण BAMS आदि चिकित्सकों की तारीफ करनी होगी कि उन्हीं की वजह से ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे तैसे चल रही है...पूरी तरह नहीं चरमरा पाई है।
उनके इस योगदान को नकारा नहीं जा सकता। वरना तो MBBS का मतलब है कि ज्यादा फीस और शहरों की ओर रूख।
सूर्यास्त की तस्वीर लाजवाब है ...
पोस्ट तो खैर है ही...
गाँव की खुशबू में डूबी ...!!
आपकी पोस्ट से मुझे अपने गांव जाने की तीव्र इच्छा हो रही है ।
अजय जी, जल्दी हो आईये....
वैसे लगन शुरू होने वाली है, शादी ब्याह का मौसम नजदीक है....लगे हाथ एकाध बारात कर आईये और सबसे जरूरी कि उस बरतीहा अनुभव पर एक एक्सपिरियंसावली लिखिए :)
सैकिल प्रकरण में फोटोग्राफर कौन था?
गोल माने सैम्पल की दवाई - टंच फैक्ट्री से डायरेक्ट, मिलावट की गुंजाइश नहीं। आप के गोले और औरों के गोलों में अंतर भी रहा होगा। शायद ध्यान नहीं दिए । ...एक फिलम का सीन याद आ गया। फरियादी की बहुत मिन्नत पर किरानी चाय के लिए राजी हो जाता है - चीनी 3 चम्मच। दुकान पर चीनी की मात्रा बताने पर चाय की कीमत बताई जाती है - 300 :)
खैर यहाँ ये हिसाब नहीं है, डाक्साब BAMS लोग गाँव देहात में स्वास्थ्य विभाग सँभाले हुए हैं और सी एम ओ साहब लोग ब्लॉक के डगडर और दवा विहीन औषधालय।
नारा तो नहीं उकसा ? एलोपैथ लोग नारा उकसना नहीं मानते। उकसा रहता तो BAMS नहीं किसी खलीफा या गुरू के यहाँ बैठवाने जाना पड़ता या देहाती टोटके करने पड़ते।
आप अभी भी गेहूँ पिसवाते हैं, आटा नहीं- संतोख भया।
चलिये इसी बहाने डॉक्टर साहब के घर में भी काम हो जायेगा ।
वाह! बहुत बढिया गांव का वर्णन किया आपने।
बहुत अच्छा लगा।
शुभकामनाएं
गिरिजेश जी,
मेरा कैमरा बाहर ही रखा रहता था ताखे में....कोई भी बच्चा या बड़ा जब तब खींच खांच लेता था फोटो।
संभवत: यह साईकिल वाली तस्वीर मेरे बेटे सौरभ ने खींची है क्योंकि वही उस वक्त वहां आसपास मौजूद था....अब ये तो जब गांव से वह लौटेगा तब ही असली खिंचवार का पता चल सकेगा :)
बाकी नेचर वाली, कुकुर-बिलार वगैरह की तस्वीर केवल मैं ही खींचता था इस पर घर में झिड़की भी मिलती थी कि क्यों बेमतलब का खींच खांच रहा हूँ....।
दरअसल वहां पर रहने वालों को इस तरह के चीजों को देख देख कर कोई भास नहीं होता जबकि मैं शहर में रह रह कर ऐसे प्राकृतिक दृश्यों से गाँव में आकर कुछ खास लुत्फ उठाता हूँ....अलग ही मजा पाता हूँ।
अगली कुछ पोस्टों में शायद कुकुर बिलार देखने मिलें :)
वैसे आप का अजय जी को दिया सुझाव मुझे भाया और मै तो लग गया हूँ अपने गाँव जाने की तैयारी में . बहुत दिन हो गया , और मगई नदी की तस्वीर भी लेनी है मुझे.और सचमुच बहुत साल हो हो गए गाँव की बारात में गए हुए. उसका भी मज़ा लेना है . और वो गुलाब का गेहू से प्रश्न, मुझे बाबु गुलाब राय का , गेहू बनाम गुलाब , लेख की याद दिला गया.
आशिष जी,
तैयारी कर लिजिए....गांव हो आईये। एक सूकून मिलता है वहां जाने में।
और टगेहूँ और गुलाबट वाली रचना शायद रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने लिखी है जहां तक मुझे याद है....स्कूली दिनों में पढ़ा था सातवी आठवी में कहीं।
त्रुटि सुधार -
कृपया 'गेहूँ और गुलाब' - पढ़ें...
बगल मे ट पता नहीं कहां से आ गया था पहले वाले कमेंट में :)
आप सही है, हम जरा कनफुजिया गए थे
बहुत सारी बातें याद आ गईं. पंद्रह साल की उम्र तक गाँव में थे तो खेती-बाड़ी का हर एक काम करते थे. अभी भी जब घर जाना होता है तो करते हैं. गेंहूँ को कंडाल में रखने का प्रकरण बहुत मजेदार लगा. आपकी ग्राम्य सीरीज अद्भुत है.
जा रहा हूँ मैं भी घर कुछ दिनों में, काम तो मुझे नहिये होगा ;)
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
पँचमजी
झोले छाप डाक्टर भले ही गोला बनाते हो ये ही उनके शुभ लाभ है |
बहुत अच्छी पोस्ट |
अभिषेक जी,
सफर के लिए मेरी ओर से अग्रिम शुभकामना.....लौटानी में यादों की गठरी लेते आईएगा हम सब के लिए :)
उधर आशिष जी भी कैमरे का लेंस साफ कर रहे हैं....मंगई नदी अबकी बारी नेट पर आनी चाहिए आशिष जी।
@ गिरेजेश जी के कथन - आप अभी भी गेहूँ पिसवाते हैं, आटा नहीं- संतोख भया।
हम्म...तो आप भी मेरी तरह खोद निपोर वाले निकले....बड़ी बारीक नजर रक्खा आपने..... अक्सर लोग कहते हैं कि आटा पिसाने जा रहा हूँ इस पर ज्यादा किसी का ध्यान नहीं जाता।
ऐसा ही एक चलन है कहने का कि जब टार्च में सेल खतम हो जाय तो दुकान में कहा जाता हैं कि -
बैटरी का सेल देना :)
एक और कथन है नया नया - रीफील रीचार्ज करवाने जा रहा हूँ :)
ध्यान देने पर बहुत कुछ इस तरह का सुनने को मिलता है।
वाह क्या ग्राम्य दर्शन करवा रहें हैं, भूली बिसरी तस्वीरें खींची चली आ रही हैं..आँखों के सामने .....चलती रहनी चाहिए ये सिरीज़..जैसे ही पूरी होने लगे एक चक्कर और लगा लीजियेगा , गाँव का :)
कमाल का लिखते हो सफेद घर वाले सतीश जी. में भी एक गाँव से ही हूँ और तुम्हारे लेख मुझे मीलों दूर वही पहुंचा देते है.
चलो भाई आराम करो और नेक्स्ट टाइम से जरा सावधानी से काम लेना और ऐसे ही लिखते रहो.
आते रहना पड़ेगा इधर रोज रोज :)
aapki lekhni bahut prabhavshaali hai..
satish ji aapki is post ka zikr hai yahan..
http://swapnamanjusha.blogspot.com/2010/05/3.html
samay nikaal kar sun sakein to accha hi hoga..
dhnywaad..
ऐसे ही परसों मुगलसराय यार्ड में भरी दोपहरी निरीक्षण करने पर मेरी पीठ-गर्दन का दर्द बढ़ गया। वापस आने पर मेरी अम्मा तो खूब नरियायीं - पूरी नौकरी रेल क यार्ड देखे हय। अब तक नाहीं मालुम कि उहां काम कईसे होत ह? के कहे रहा गरमी में डायेंडायें घूमई के?
अम्मा लोग नरियाती हैं तो अपनी उम्र जितनी है, उसकी आधी लगती है। :)
@ ज्ञान जी,
के कहे रहा गरमी में डायेंडायें घूमई के?
अम्मा लोग नरियाती हैं तो अपनी उम्र जितनी है, उसकी आधी लगती है। :)
ये डांये डांये बहुत दिन बाद सुना हूँ। मेरी अम्मा भी जब नरियाने लगेंगी तो इसी तरह के शब्द उपयोग में लाती हैं :)
और ये बात तो सच कहा कि जब अम्मा लोग नरियाती हैं को अपनी उम्र जितनी है उसकी आधी लगती है।
बेहतरीन चित्रण.
अंतरे बाएँ डंड मारय दइउ न मारय अपुनय मरय :)
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