गाँव की ही एक दुकान में बैठे हुए कुल्हड़ वाली चाय पी रहा था कि तभी नजर पान – तमाखू और जर्दे आदि के बीच रखे एक तमाखू वाले डिब्बे पर जा टिकी। लिखा है – पलंग तोड़, मर्द चौड़ी पत्ती……… तमाखू …..साथ ही डिब्बे पर एक दाढ़ी मूँछ वाले का फोटो लगा है। पूछने पर पता चला कि यह सुगंधित तमाखू है जो पान वगैरह में पड़ता है।
मैं इस ब्राण्ड के नाम यानि की पलंग तोड़ मर्द चौड़ी पत्ती को देख हंस पड़ा। पान वाला खुद बताने लगा कि बड़ा तेज है ससुरा। ज्यादा डाल दो तो सिर घुमने लगता है। मर्द चौड़ी पत्ती….क्या नाम है। सिर्फ मर्द आदमी ही इसका सेवन कर सकते हैं।
चाय की चुस्कियों के बीच अखबार पर भी नजर डालता हूँ। किसी महिला जासूस के पकड़े जाने की खबर अमर उजाला के फ्रंट पेज पर है। साथ ही उस महिला की हंसते हुए तस्वीर भी लगी है। मैं वही खबर पढ़ रहा था कि पान वाला बोल पड़ा – छिनरीया हसत बा। एकरा के त फांसी दे देके चाही।
मैं पान वाले की तरफ देख कर मुस्कराता हूँ। ऐसे मामलों में क्या सजा अधिकतम है मैं नहीं जानता। लेकिन पान वाले का यह कहना कि उसे फांसी दे देनी चाहिए………… मैं थोड़ा अचकचा गया। क्योंकि हाल फिलहाल ही उस पान वाले के बारे में मुझे पता चला कि यह तीन बार जेल हो आया है। पूछने पर उसने खुद ही हंसते हंसते बताया कि – एक दांय चार दिन बदे, दूसरी दांय आठ दिन खातिर अउर तीसरी दांय एक महीना चार दिन खातिर जेल में रह आया हूँ। बताने में कैसी शर्म । जेहल में त बड़े बड़े नेता लोग रह आए हैं। बाकि मर्द आदमी कभी छुपाता नहीं। जो है सो है।
साथ में बैठे मेरे मित्र ने चाय वाले के सामने ही उसकी ओर मुखातिब होते हुए बताया कि इसे चाय वाला और पान वाला जान कर कम मत समझना। बहूत चालू है । राहजनी और छिनैती के केस में अंदर हुआ था। एक आदमी मनीआर्डर करने जा रहा था उसका पैसा इसने आगे जाकर छीन लिया था। और एक बार तो एक को दो चार झापड़ पीट पाट दिया था उस लिए अंदर हो आया है। मित्र की बात सुनकर चायवाला हंसने लगा था। मर्द जो ठहरा।
जेल की बात बताते हुए चायवाले ने बताया कि मतीन ( एक गाँव का ही कैदी) के बैरक में जगह कम थी तो उसे पुलिस वाले से बात करके दूसरे बैरक में शिफ्ट करवाया गया है। चायवाले ने बैरक का नाम ऐसे लिया जैसे कोई आर्मी वगैरह वाले लेते हैं।
यहां वहां की कुछ और बातें चलीं। कभी खाद पर, तो कभी विवाह पर तो कभी घूम फिरकर वही महिला जासूस पर। मैंने गौर किया कि जासूस महिला के बारे में चायवाले के जो विचार थे सो कुल मिलाकर गालीयों और लानतों की तमाम उपमा अलंकार आदि से सजे थे। छिनरी, बुजरी, ससुरी वगैरह वगैरह…..। आस पास बैठे और लोगों की भी यही राय थी। कुछ का कहना था कि पब्लिक के हाथ में दे देना चाहिए तो कुछ का कहना था कि गोली मार देनी चाहिए। इसी बीच कुछ और खबरें पढ़ी, कुछ गपड़गोष्ठी हुई। वही बातें….मनमोहना, सोनिया, मायावतीया, मुलैमा, पंचायत चुनाव, आरच्छन, बीएड वगैरह वगैरह।
समय बीत रहा था, सो चाय पी- पा कर घर की ओर चल पड़ा।
कोंहरान, बनियौटा, जोलाहटी, मिंयाना से गुजरते हुए घर पहुंचा। पहुँचते ही देखा कि अम्मा एक मूँज की खटिया पर आँगन में बैठी हैं। उन्हीं के पास जा बैठा। इस बार अम्मा से पूरे एक साल बाद मिला हूँ। उम्र का असर अब अम्मा पर साफ दिखने लगा है। शूगर और हार्ट का असर तो है ही। मेरे हाथ खुद ब खुद अम्मा को मींजने लगे। अम्मा के हाथों और पैरों को दबाते हुए मैंने महसूस किया कि उम्र और बीमारी के चलते अम्मा के हाथ हवा से भी हल्के हो गये हैं । मन में हूक सी उठी कि यही वे हाथ हैं जो मेरी अच्छी तरह कुटम्मस करते थे। मेरे कॉलेज में पढ़ने तक कई बार अम्मा ने मेरी इन्हीं हाथों से कुटाई की है। और आज यह हाथ इतने हल्के हो गये हैं। मन अजीब सा होने लगा है।
खटिया पर ही बैठा था कि अम्मा द्वारा तैयार एक लोटा ललछँहू मट्ठा अंदर से आया। पीकर तृप्त हुआ। अम्मा से मुंबई चलने कहता हूँ लेकिन नहीं…….नहीं जाना उन्हें। कह रही हैं कि मैं चली जाउंगी तो यहाँ सब कौन देखेगा। जिद करता हूँ लेकिन अम्मा नहीं मानती। वह यहीं गाँव में रहना चाहती हैं। पिताजी उधर भैंस की नांद में चूनी चोकर चला कर आ रहे हैं। खबर-खुबर भैंस अपनी हौदी में जुटी है।
अगले दिन मुंबई के लिए रवाना हो रहा हूँ….मन भावुक हो उठा है……। अक्सर गाँव छोड़ते वक्त मैं इस पीड़ा से गुजरता रहा हूँ। लेकिन इस बार फफक पड़ा। अम्मा को छोड़ने का मन नहीं कर रहा। पत्नी बच्चों के सामने……35 साल की उम्र में……. इस तरह फफक पड़ना……उफ्फ……..। जीप की आगे की सीट पर ड्राईवर की बगल में बैठा आँसू पोंछता हुआ मैं जुलाहटी, कोंहराना, मिंयाना, बनियौटा से गुजरते हुए चला जा रहा हूँ……..रोता जा रहा हूँ……….. जाने क्या सोच रहे होंगे यहाँ के लोग मुझे इस तरह देखकर…….रोवनछा….
बाजार से गुजरते हुए जीप फिर उसी चायवाले के सामने से गुजरी है। आँसू अब भी झर रहे थे। उधर ‘गोदान’ के आने का समय पास आ रहा है । प्लेटफॉर्म पर खड़े पीपल के घने साये तले सामान रखा गया। ट्रेन आई, सामान सहित मैं अंदर हो लिया। इतने में अम्मा का फोन आ गया। बेटवा संभाल कर जाना…..कोई टेंसन मत लेना…… जो आँसू अब तक रूक गये थे फल्ल से बह आये। खिड़की से बाहर देखते हुए रूमाल से आँखें पोंछता हूँ। आँसू जब्त नहीं हो रहे …….थ्री टियर के उपरी सीट पर पार्टिशन की ओर मुँह करके, बाँहों का तकिया बना सो जाता हूँ। थोड़ी देर बाद बाँह भी गीली हो आई…..अम्मा के हाथ अब भी याद आ रहे हैं।
मुंबई पहुँच कर अब जब मैं यह पोस्ट लिखने बैठा हूँ…….भावनाओं का उद्वेग जब थम सा गया है……..तो सोच रहा हूँ कि वह चाय वाला मेरे बारे में जाने क्या - क्या सोच रहा होगा…….और हाँ उसकी तमाखू वाली मर्द डिबिया तो जैसे मुझ जैसे रोवनछे को देख मुँह चिढ़ा रही होगी…..मर्द चौड़ी पत्ती……..कम्बख्त ने कम से कम मेरी जीप के गुजरने तक तो उस डिबिया का मुँह दूसरी तरफ फेर दिया होता…….।
- सतीश पंचम
स्थान – वही, जहाँ पर ललछहूँ दही और ललछँहू मट्ठा नहीं मिलता।
समय – वही, जब गोदान एक्सप्रेस आने को हो और स्टेशन पर खड़े पीपल के घने साये को देख मन खुद ब खुद गोदान फिल्म का गीत गुनगुनाने लगे -
पीपरा के पतिया सरीखे डोले मनवा ………कि हियरा में उठत हिलोर…..
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44 comments:
nice
मर्द बच्चे! इतने में ही रोना निपटा दिए। मेरे से प्रेरणा लेते हुजूर, लबालब आँखों पर 6 कड़ियाँ लिखने के बाद भी आँसू खत्म नहीं हो रहे। रोना अच्छा है, नज़र साफ रहती है।
गाँव जाता हूँ तो पिताजी कहते हैं "हम लोगों को माइनस करके सोचा करो।" मैं सोचता ही रह जाता हूँ और वापस आते समय छिपा कर आँख पोंछती अम्मा को देखते सोच ही समाप्त हो जाती है, बस रह जाती हैं लबालब आँखें।
मर्द चौड़ी पत्ती, पनहेरी और जासूसन की चर्चा गुदगुदा गई और कई बातें उभार गई। हमेशा की तरह उत्कृष्ट लेख। प्रशंसा के लिए शब्द नहीं मिल रहे। आभार।
अपनी दुनिया में लौट आये, सतीश साहब या अपनी दुनिया से लौट आये?
घर में रहते हुये ऐसी पोस्ट शायद इतना असर न डालती, अभी तो हम भी नोस्ताल्ज़िक हो रहे हैं।
बहुत बहुत आभार।
:) सतीश साहब, मर्द को भी दर्द होता है...
गाव की याद आ गयी आपकी ये पोस्ट पढकर.. बस आँसूओ का छलकना बाकी है :(
भावुक कर दिया आपने तो, बस हमारी भी यही हालत होती है, कुछ शब्द तो हम बहुत सालों बाद पढ़ या सुन रहे हैं :) बहुत ही बढ़िया
रोवावनछा पोस्ट!
अद्भुत! आत्मीय!
आदमी जेल जाये त मर्द और औरत जाये त छिनाल. आखिर है तो ये अपना समाज ही. गाँव-गिराँव की चाय की दुकानें राजनीतिक बहस का अड्डा होती हैं. हमारे गाँव में एक नहरिया की पुलिया है, वहीं बैठकी लगती है सबकी...लगता है संसद दिल्ली से उठकर नहरिया पर आ गयी है.
ललछहूँ मट्ठा गाँवों की खासियत...हमें नहीं अच्छा लगता...
माँ-बाप को बुढ़ाते हुये देखना बड़ा त्रासद होता है...मेरी अम्मा तो खैर बहुत पहले ही चली गयीं, पर बाउ को बुढ़ाते हुये देखना बहुत खराब लगता था. जिन हाथों ने हमें पकड़कर चलना सिखाया, उन्हें ही सहारा देना.
"और हाँ उसकी तमाखू वाली मर्द डिबिया तो जैसे मुझ जैसे रोवनछे को देख मुँह चिढ़ा रही होगी…..मर्द चौड़ी पत्ती……..कम्बख्त ने कम से कम मेरी जीप के गुजरने तक तो उस डिबिया का मुँह दूसरी तरफ फेर दिया होता…….।" कैसे मर्द हैं आप रोवनहे (हमारे यहाँ यही कहते हैं)
फोटुएं बड़ी अच्छी हैं...कमाल की और पोस्ट भी...टिकोरों में नमक लगाकर खाने वाले "रोवनहे मर्द" की...
कल किसी ने कहा था ....नेट एक स्ट्रेस बस्टर है .....भीतर भीतर कितना कुछ रोज उमड़ता है .कही न कही निकलेगा तो अच्छा होगा .......हमें सिर्फ ये पता चला के दूर मुंबई में भी हम जैसा आदमी है जो पेंतीस की उम्र में हमारी तरह रोता है
मुक्ति और डा. अनुराग दोनों से सहमत।
भावुक कर देने वाली पोस्ट।
चलो, एक मनई तो अपनी वेराइटी का निकला। हमारे आंसू हमारी मरदानगी को बहुत दगा देते हैं।
हमारा गोलू पांड़े (पालतू कुकुर) मरा था तो दिन भर आंसू नहीं रुके थे। :(
@ ज्ञानदत्त पाण्डेय जी, इधर भी सेम टु सेम ! हमारे चिली चौबे (पालतू कुक्कुर) भी जब स्वर्ग सिधारे थे तो, बाउ जी की आँखों में आँसू आ गये थे, तब हमने जाना कि हम इतने रोवनहे काहे हैं.
सतीश जी, अब थोड़ा हँस दीजिये. आप किस्मत वाले हैं कि गाँव जाते हैं अपने अम्मा-बाउ जी से मिलने. हमें देखिये बाउ के देहांत के बाद से गाँव ही नहीं गये. चार साल हो गये. क्या जायें? बाउ जी पलँग पर बैठकर हमारी राह निहारते थे, तो जाने का मन करता था.
अब तो गांव में भी कोई नहीं बचा हमारा , अम्मा पिछ्ले बरस छोड कर चल दीं गांव भी और हमें भी । बाबूजी को जबरन यहां लाद लाए कि घर पर उनको देखने जोहने वाला कोई नहीं है । कभी कभी लगता है कि बेकार इतना पढ लिख गए । काश कि गांव में मजदूर के बेटा खेतिहर ही बन कर जी लेते तो बार बार हर बार वो दुनिया तो नहीं छोडनी पडती न ।आज तो आपने रुला दिया , अब क्या कहें
सतीश जी
सच चिन्तित कर देने वाली पोस्ट
मुक्ति जी,
ललछहूँ मट्ठा मुझे तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन मेरे बच्चों को नहीं। उन्हें वही सफेद वाला हल्का खट्टा दही पसंद आता है।
इस बार घर में एक फंक्शन था ( बरच्छा) और इस मौके पर ढेर सारे लोगों के लिए लस्सी बनाते वक्त घर में ही हलवाई ने बच्चों के सामने ही skimmed milk powder दूध में मिलाकर औऱ दही में उसी अनुपात में पानी मिलाकर लस्सी बनाया। बच्चों को वह पावडर जानबूझ कर दिखाया गया कि देखो बाहर ऐसे ही दही बनती है पावडर मिलाकर लेकिन फिर भी बच्चे नहीं माने। उन्हें ललछहूँ की बजाय सफेद दही ही पसंद आया। जबरदस्ती तो उनसे मनवाया नहीं जा सकता कि इसे पसंद करो। नई पीढी पुराने वाले सादी चीजों की बजाय चटक मटक ज्यादा पसंद करती है।
@ अनुराग जी,
जी हाँ, यह नेट एक तरह से स्ट्रेस बस्टर ही है। बस इसके इस्तेमाल का तरीका सही होना चाहिए।
@ अजय जी,
कभी कभी लगता है कि बेकार इतना पढ लिख गए । काश कि गांव में मजदूर के बेटा खेतिहर ही बन कर जी लेते तो बार बार हर बार वो दुनिया तो नहीं छोडनी पडती न
बिल्कुल मेरे मन की बात कह रहे हैं आप। यह बातें कई बार मन में आती हैं कि यहां किसके लिए पड़े हैं :(
@ ज्ञान जी,
हमारे आंसू हमारी मरदानगी को बहुत दगा देते हैं।
सहमत हूँ।
@ मुक्ति जी
आपने बहुत सही प्रश्न उठाया है कि आदमी जेल जाय तो मर्द और औरत जेल जाय तो छिनाल ।
भावुक पोस्ट ...उतनी ही भावभरी टिप्पणिया ....
जिनका अपना कोई गाँव ही नहीं हो ....गाँव की याद आने पर कहाँ जाएँ ...आप जैसे गाँव वालों की स्मृतियों या लापतागंज देखकर संतोष प्राप्त कर लेते हैं ...
लेकिन इस बार फफक पड़ा। अम्मा को छोड़ने का मन नहीं कर रहा। पत्नी बच्चों के सामने……35 साल की उम्र में……. इस तरह फफक पड़ना……उफ्फ……..।
पुरुष आँसू छिपा कर क्या सिद्ध करते हैं ? मन करता है तो हँसें और जी चाहें तो रोयें । अम्मा तो हमेशा अम्मा रहेगी, गोद में सर छिपाने के लिये ।
@ पुरुष आँसू छिपा कर क्या सिद्ध करते हैं ? मन करता है तो हँसें और जी चाहें तो रोयें । अम्मा तो हमेशा अम्मा रहेगी, गोद में सर छिपाने के लिये
बात तो आपकी सौ फीसद सच है कि अम्मा तो आखिर अम्मा ही रहेगी। आखिर हम पुरूष अपने आँसू छिपाकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं ?
यहाँ मुझे लग रहा है कि हम पुरूष एक प्रकार की इमेज कोटिंग लेकर चलते हैं कि पुरूष का मतलब सख्त जान, ऐसा शख्स जो हर मुश्किल को हंसते हंसते सामना करे न कि रोकर( शायद यह हिडन सामाजिक बंधन ) है जो हम पुरूषों पर चाहे अनचाहे लद सा गया है। और उसी को निभाने में हम अपनी भीतरी संवेदनाओं को सबके सामने पेश करने में कतराते हैं।
यही हाल महिला वर्ग के बारे में भी मुझे कुछ अलग अंदाज में लग रहा है कि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे नाजुक मिजाज बनीं रहें, कोई बात को धीमें से कहें, पटर पटर ढेर न बोलें ( ऐसी ही ढेरों अनचाही बातें) .....
इस तरह की इमेज कोटिंग शायद लंबे समय से चले आ रहे परिपालनों या मान्यताओं का हिस्सा रहे हैं और वही हमसे कुछ न कुछ मान्य इमेजेस सा रहने का आग्रह करते लगते हैं। हांलांकि अब मान्यताएं बदल रही हैं ... औरतें हार्ड टाईम में भी जीवट दिखाती मिलती हैं।
मेरे पिताजी के साथ पढ़ाने वाले एक शिक्षक की जब मौत हुई थी तो उनकी बड़ी बेटी( अविवाहित) करीब 21 साल की थी। उसकी आँखें नम तो थीं पर एक आँसू तब नहीं टपके थे। उसने ही अपनी मम्मी को ढाँढ़स बंधाया, घर आने वाले लोगों को हैंडल किया, क्रिया कर्म निपटवाया और आगे का जीवन जीने की जीजीविषा दर्शाई। उसकी हिम्मत और जीवटता देख सभी लोग दंग थे जबकि ऐसे मौके पर अच्छे अच्छों के होश नहीं रहते।
बाद में हांलाकि वह पिताजी से अकेले में मिल खूब रोई लेकिन जब तक क्रियाकर्म वगैरह तेरही आदि न निपट गया अपने आँसू रोके रखे।
तो कहने का तात्पर्य यह कि मान्यताएं बदल रही हैं, इमेजेस बदल रहे हैं पर शनै शनै।
पोस्ट खत्म होते होते जाने कहाँ पहुँच गया..समय लगा लौटने में नम आंख लिए...
एक शब्द में:
अद्भुत लेखन...
आपकी पोस्ट के बहाने बरसों पहले छूटे गाँव से मिलना हो जाता है ...साल में एक बार तो जाया ही करते थे. हमारी यादें थोड़ी सी अलग हैं. उनमे ये बाज़ार, दुकानें और ऐसी बोलियाँ शामिल नहीं हैं...और माता-पिता को छोड़ कर आने के दुख एक जैसे ही हैं सबके, चाहे वे गाँव में रहते हों या शहर में .हर पाठक ने एक बार याद कर ली, दूर होने की ये मजबूरी ...
और आजकल ये वेलकम चेंज आ रहा है पुरुषों में ...वे अब अपना रोना नहीं छुपाते बल्कि ऐसे लोगों को अब' रेमंड्स मैन' कहा जाता है...जिनमे सारी कोमल भावनाएं होती हैं. कई लड़कों को कहते सुना है...मैं तो कैंसेरियन हूँ..बहुत रोता हूँ..BTW आप भी कैंसेरियन तो नहीं :)
@ रश्मि जी,
आप भी कैंसेरियन तो नहीं
इसका जवाब मुझे सूझ नहीं रहा :)
@ हमारी यादें थोड़ी सी अलग हैं. उनमे ये बाज़ार, दुकानें और ऐसी बोलियाँ शामिल नहीं हैं.
रश्मि जी,
गाँव देहात की यह बोली जानने, सुनने की ललक लिए ही मैं ऐसे किसी ठिये की तरफ खिंचा चला जाता हूँ और लोगों की बातें सुनता, गुनता रहता हूँ।
यह मेरा एक तरह का शौक ही है जिसके जरिए मैं कुछ अपने मन की बातों को सबके सामने करीने से रखने की कोशिश करता हूँ :)
इस जेलियर पान वाले का ठियां मैंने जानबूझकर चुना था अपना समय बाजार में बिताने के लिए। इतना अंदाजा जरूर लगाया था कि जब यह जेल गया है तो जरूर इसका सलीका, बातचीत का लहजा , इससे मिलने वाले लोगों का व्यवहार बाकी दुकानदारों से अलग होगा।
और मेरा अंदाजा कुछ हद तक सही निकला। उसकी गालियों को मैं पूरी तरह यहां नहीं लिख सकता वरना पोस्ट का मूल भाव बदलने की संभावना थी :)
भावुक पोस्ट।
इतनी बढ़िया पोस्ट उतनी ही सार्थक टिप्पणिया |आपका गाँव के बारे में लिखना और उसे हमारा पढना एक| तसल्ली सी देता है मन को|सफेद और काले से अलग ग्रे रंग का शेड होता है आपके पात्रों में जो की भारतीय जन मानस का सही चेहरा है |अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया आपकी इस मार्मिक पोस्ट ने |
गाँव रहते नहीं थे, केवल जाया करते थे। वह भी पिछले ३६ वर्ष से नहीं गई। सुना है अब गाँव भी बदल गए हैं। प्रगति के मामले में ही नहीं, पर्यावरण के मामले में।
आपकी रो पाने की विशेषता से थोड़ी सी ईर्ष्या भी होती है, लिखने की सामर्थ्य से भी।
घुघूती बासूती
एक अरसे बाद कोई ढँग की पोस्ट पढ़ी,
इधर मैं हतभागी कि मुझे आँसू ही नहीं आते,
गाँव में उभरते हुये मर्दों की पहचान हुआ करती थी
कि वह खेत में काम करने वालियों को देख खुल कर गाने का जिगरा रखते हों..
" लाल ओठवा से चुवै लऽ ललइया कि रस चुवैला, हो तोरी मीठी मिठी बोलिया से फूल झड़ेला "
गोंईठा की मद्धिम आँच पर पके दूध की दही, उसके मट्ठे में पका भात.. महियाउर व गुड़ के भेली.. अह्हा हा हा
सँशोधित करें
लाल लाल ओठवा से चुवै लऽ ललइया कि हो रस चुवैला, हो तोरी मीठी मिठी बोलिया से करेजा जरेऽ ला हो करेजा जरेऽ ला
@ अमर जी,
गाँव में उभरते हुये मर्दों की पहचान हुआ करती थी कि वह खेत में काम करने वालियों को देख खुल कर गाने का जिगरा रखते हों..
आज भी ऐसे जिगरा वाले मर्द हैं गाँव में लेकिन वे फिल्मी गाने - पैसा पैसा करती है तू पैसे से क्या डरती है......वाले गाने की तर्ज पर उसे बिगाड़ कर गाते हैं कि -
भैंसा भैंसा करती है तू भैंसे से क्यों डरती है :)
यह बिगड़ैल गीत अबकी बार गाँव में सुना था मैंने एक चरवाहे के मुँह से....एक बार तो कनफूजिया गया कि वह गीत अपनी भैंसीया के लिए गा रहा है या सामने घास कर रही ललना के लिए गा रहा है :)
अद्भुत, अद्वितीय प्रविष्टि ! शीर्षक ने इतना अश्रु-पूर्ण होने का अंदाज न दिया था !
विशिष्ट प्रविष्टि ! आभार ।
बकौल हिमांशु -- '' शीर्षक ने इतना अश्रु-पूर्ण होने का अंदाज न दिया था !''
नो कमेंट्स ! पूर्णतया फील की जा रही पोस्ट पर टिपण्णी करने की गुन्जाईस नहीं बचती.
सतीश जी ,
क्या यह संजोग है ? गाँव में हफ़्तों माँ के पास रह ४ दिन मुंबई और फिर चार दिन पहले ही न्यू योर्क आया हूँ.७ महीने माँ पास रही मुंबई में इलाज के लिए फिर सब निराशा के बाद फिर गाँव ले गया वापस उनकी जिद पर. ९० की हुईं ( सौ बताती हैं ) .
मन धड़कन पर है . वे पता नहीं ,महीनों या दिनों की मेहमान हैं . यहाँ आना जरूरी था ,पर मन नह्हीं कर रहा था की कहीं इन्हीं दस दिनों में ही तो कुछ न लिखा हो और जाने पर फिर न मिले.
मुझे असमंजस में पा एक तरह से ठेल कर भेजा की जा आओ मुझे कुछ नहीं होगा.
आते समय हम दोनों फूट फूट कर रोये .....कि शायद ये आख़िरी मुलाकात न हो .
रोज दो बार तो फोन कर हाल लेता ही हूँ और कुछ सांत्वना मिलती है कि हालत उतनी ख़राब नहीं हुयी है अभी ,थोड़ी मोडी बात भी फोन पर कर लेती है.मुझे विश्वास है कि मेरे लौटने तक वो रहेगी , क्योंकि वादे की पक्की रही है हमेशा .
आपके मन को समझ सकता हूँ. रोहनाह्वान सिर्फ कैंसेरियन ही होते हैं या मेहररुई ? मर्द .....? ?
रोता तो मन है ,हाँ कभी कभी आँख भी साथ दे देती है.
मीट में आपको बहुत मिस किया .१३ तक फिर गाँव पहुँच जाऊंगा .
gaon kai yad kai sahara hi hum aur aap metro main rah lata hai
सतीश जी ..... मेरी माँ अभी इतनी बुजुर्ग नहीं है और न ही मई ज्यादा गांव में रहा, आपका पोस्ट मन को छू गया |
भरी आँखों से और भर्राये गले से पूरी पोस्ट पढ़ कर पत्नी को सुनाई (आदत है जब कुछ अच्छा लगता है तो ऐसे ही करता हूँ) माँ को सुनाना चाह रहा था मगर जान बूझ कर नहीं सुनाया वर्ना वो आपकी तारीफ करेंगी और मुझे उलहाना | मैं उन चंद किस्मत वालो में से हूँ जो अपने घर जनपद में पोस्टिंग पा जाते और और अम्मा बाबु का सानिध्य पा लेते है |अच्छी पोस्ट के लिए मुबारकबाद |
रश्मि की पोस्ट से यहाँ आ पहुँचे...रो भी रहे हैं और पढ़ भी रहे हैं...आज बेटा सफ़र पर निकला तो मन जाने कैसा कैसा हो रहा था..कुशल पहुँचने की खबर पाई तो चैन आया... फिर इस पोस्ट ने तो जैसे बहुत पीछे भी धकेल दिया....आज भी ननिहाल का सत्तू और गुड़ ..कुल्हड़ में मलाई वाला दूध... बाजरे की रोटी पर मिर्च की चटनी...कुछ नहीं भूलता....ससुराल का गाँव भी मन मोहता है..
सब रोते हैं भाई जी
और यह तो डिस्क्रिमिनेशन है की लड़कियों को रोने की पेर्मिशन है और लड़कों को मनाही ..
सतीश जी आज कई पोस्ट पड़ी आप की .. यह पड़ कर मन अजीब टाइप हो गया ..
मेरा जनम तो मुंबई में हुआ, लेकिन बनारस (गाँव :थानारामपुर ) से ज्यादा जुडाव
बचपन से रहा है ...लेख के अंत में रुला दिया ...दफ्तर में सहयोगी गण अस्चार्यचाकित
है ..अभी तोड़ी देर पहले मुह पर हाथ रख कर हस रहे थे और अचानक गमगीन कैसे
हो गये ...बहोत अच्छा लिखते है आप...आज फिर से शिव भैया का कोटि सह धन्यवाद
आप से परिचय करवाने के लिए | गिरीश
पता नहीं... जब बहुत कुछ कहना हो तो ... शब्द ही नहीं सूझते... क्या कहूँ !!!
इस वक्त जब इसे पढ़ रहा तो रेडियो पर गीत बज रहा
"... आ अब लौट चलें..."
पता नहीं कैसे कैसे बादल उमड़ घुमड़ रहे स्मृतियों के
शुरुआत तो बड़ी अच्छे मूड में रही.. अंत में भावुक कर दिया आपने... मर्द एक नकली खोल ओढकर चलता है.. या कहीं कि चलना पड़ता है...
thanks for sharing...
वाह, फ़ेसबुक के बहाने आपकी ये उम्दा पोस्ट पढ़ने का मौक़ा मिला.
कहाँ से शुरू हुए और कहाँ पहुँचकर रुके। माँ से दूर जाना कब आसान रहा है?
Kai dino baad blog par aana hua.. Tippani dene se rok nahi pa raha.. Homesickness ke mareez ham bhi hain..
speechless............
needless to say ...i m in tears!
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