हाल ही में मुंबई के ऐसे इलाके से होकर गुजरा हूँ जो वैश्याओं के इलाके के रूप में जाना जाता है.....फॉकलैंड रोड ......जहां के अनुभव और जन-जीवन को कई बार लोगों ने फिल्मों में छन छन कर देखा है। दरअसल मुझे मुंबई के सी.पी.टैंक इलाके में स्थित हिंदी ग्रंथ कार्यालय जाना था। यहां मैं पहले भी हो आया हूँ, अपनी बेजोड किताबों के भंडार से पटी यह दुकान अपने आप में अंग्रेजीवाद के बीच हिंदी का अजूबा ही कही जाएगी।
जिस बस से मैं वहाँ गया था, और वह जिन रास्तों से होकर गुजरी उसकी तो एक अलग कहानी है। हर रास्ते का नाम अपने आप में अजीम रहा, आंबेडकर मार्ग, मौलाना आजाद मार्ग, मिर्जा गालिब मार्ग,कस्तुरबा गाँधी चौक....। खैर, बात हो रही थी रेडलाईट इलाके की। यह इलाका जिस रोड पर है उस रोड का नाम भी अजब गजब था। अक्सर होता यह है कि दुकानदार अपने दुकान पर साईन बोर्ड के साथ नीचे छोटे आकार में दुकान के नंबर के साथ, पूरा पता भी लिखते हैं। तो, यहां कोई उसे अपनी दुकान पर फाल्कन रोड लिखता, कोई फोकलैंड रोड लिखता, तो कोई सीधे ही फॉक** लिख अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता। ये वह है जो कि अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है।
मेरी बस जैसे ही रेडलाईट एरिया से होकर गुजरने को हुई, बस में बैठे सभी लोगों की नजरें बाहर की ओर टंग गईं। सडक के दोनो ओर वैश्याएं विभिन्न ढंग से ग्राहकों को अपनी ओर लुभाने की कोशिश कर रही थीं। कोई पान खाए दांत चिआरे ग्राहक को बुला रही थी तो कोई अपनी शेवन आर्मपिट को दिखाने के लिये अपनी बाहों को बार बार उठा अपने खुले बालों को बाँधने का उपक्रम कर रही थी। किसी किसी जगह पर दो से चार वैश्याएं झुंड बनाकर बैठी थीं। उनके बैठने के तरीके अलग अलग थे। कोई साडी के पल्लों को एक विशेष रूप से रख ग्राहक बटोरती तो कोई स्लीवलेस पहने कँखौरियों को दिखाने को तत्पर दिखी तो कोई यूँ ही हँसी ठिठोली करती हुई। कुछ ग्राहक वैश्याओं से मोलभाव भी करते दिखे।
ट्रैफिक स्लो होने के कारण बस में बैठे लोग इन नजारों को जम कर देख ताक रहे थे।F M पर सदाबहार गाने बज रहे थे। वहीं, बाहर सडक पर कई लोग जो दलाल टाईप लग रहे थे, रूमाल को गर्दन में कॉलर के किनारे लपेटे.....मुंह में पान दबाये, हाथ की तर्जनी उंगली से चूने की परत खरोंचे हुए ग्राहकों को फांसने की फिराक में लगे। इन्हें देख गुलजार का लिखा कमीने फिल्म का गीत सटीक लगा.....सौदा करे सहेली का, सर पर तेल चमेली का ..........कि आया....कि आया भौंरा आया रे....गुनगुन करता आया रे..........
इन्हीं सब नजारों के बीच से बस गुजरती हुई अपने गंतव्य कस्तूरबा गाँधी चौक पहुँची। पास ही की लेन में हिंदी गृंथ कार्यालय वाली दुकान थी। दुकान में घुसने पर पिछले नजारों से अलग दुनिया दिखी। कहीं पर अज्ञेय दिखे तो कहीं प्रेमचंद, एक ओर 'गुनाहों का देवता' सजी थी, तो एक ओर 'सारा आकाश'। वहीं, फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आंचल' के बगल में 'चरित्रहीन' भी लगी थी। कहीं पर मैत्रेयी पुष्पा की 'इदन्नमम' दिखी तो कहीं पर चित्रा मुदगल की 'आँवा'। बगल में ही 'वेद-पुराणों की मिमांसा' भी दिख गई। इन ढेर सारी क्लासिक रचनाओं और सरस्वती के भंडार को वैश्यालयों से कुछ ही फर्लॉंग की दूरी पर स्थित होने से मैं सोच में पड गया कि क्या ही अजीब स्थिति है। एक ओर सरस्वती जी का भवन हैं तो पास ही में नरक भोगती महिलाओं का इलाका, जो न जाने किस पाप की गठरी को ढो रही हैं। एक ओर ज्ञानदायिनी भवनिका और दूसरी ओर चंद चहल-कदम ही दूर स्त्रीयों के नारकीय ठीये। अजब मेल है।
तभी मेरे जहन में फिल्म 'अमर प्रेम' का वह दृश्य कौंध गया जिसमें दुर्गा मूर्तियों की स्थापना के लिये वैश्याओं के घर की देहरी से मिट्टी लेने की प्रथा को दिखाया गया है। फिल्म में मूर्तिकार से कोई प्रश्न करता है कि दुर्गा जी तो पवित्र हैं, फिर उनकी स्थापना के लिये इन बदनाम जगह वालियों के देहरी की मिट्टी क्यों ली जाती है ? तब मुर्तिकार कहता है कि इन लोगों के यहां की मिट्टी बहुत पवित्र होती है। प्रथानुसार, बिना इस जगह की मिट्टी लगाये दुर्गा जी की मूर्ति स्थापना नहीं की जाती।
कैसा संजोग है, कि सरस्वती जी और दुर्गा जी का। एक शक्ती दायिनी हैं तो दूसरी ज्ञानदायिनी। जैसे दुर्गा जी को बदनाम गलियों की मिट्टी से स्पर्श पूजन की परंपरा है, वैसे ही शायद साहित्यिक कृतियों के रूप में सरस्वतीजी भी बदनाम गली की देहरी को छूती दिख रही हैं। न जाने कितनी उच्च स्तर की साहित्यिक कृतियां इन बदनाम गलीयों की बदौलत ही लिखी जा चुकी हैं। वैश्याओं की देहरी फिर अपनी मिट्टी का मान रखने में कामयाब रही लगती है।
फणीश्वरनाथ रेणु की 'जूलूस' लेकर लौटते समय फिर वही दृश्य दिखे। ट्रैफिक और भी स्लो हो गया था। गहराती शाम देख वैश्याओं की संख्या और भी बढ आई थी। दलाल और ग्राहक सभी जैसे इसी वक्त को पाने में बेताब थे, मानों शाम कोई उत्सव लिये आ रही हो। तभी मेरी नजर वैश्याओं के बीच बैठी एक बेहद सुंदर स्त्री पर पडी। शक्ल से वह कहीं से भी वैश्या नहीं लग रही थी. चेहरे पर मासूमियत, साडी के किनारों को उंगलियों में लपेटती खोलती और एक उहापोह को जी रही वह स्त्री अभी इस बाजार में नई लग रही थी। कुछ ग्राहक उसकी ओर ज्यादा ही आकर्षित से लग रहे थे। मेरे मन में विचार उठा कि आखिर किस परिस्थिती के कारण उसे इस नरक में आने की नौबत आन पडी होगी। इतनी खूबसूरत स्त्री को क्या कोई वर नहीं मिला होगा। मेरी लेखकीय जिज्ञासा जाग उठी। मन ने कहा........ यदि यहां की हर स्त्री से उसकी कहानी पता की जाय तो हर एक की कहानी अपने आप में एक मानवीय त्रासदियों की बानगी होगी। न जाने किन किन परिस्थितियों में यह स्त्रीयां यहां आ पहुँची हैं। कोई बंगाल से है, कोई तमिलनाडु से है तो कोई नेपाल से है। हर एक की कहानी अलग अलग है, पर परिणाम एक ही। हर एक पर कहानी लिखी जा सकती है।
तभी मुझे अमरकांत रचित 'इन्हीं हथियारों से' उपन्यास की लाईनें याद आ गईं जिसमें कोठा मालकिन अपने यहां की लौंडी को ग्राहकों से सावधान रहने के लिये ताकीद देती है, कि इन ग्राहकों को कभी अपने दिल की बात नहीं बतानी चाहिये। और न तो कभी दिल देना चाहिये। यहां जो आते हैं सभी अपने मतलब से आते हैं। इन ग्राहकों में शराबी, जुआरी, लोभी, दलाल, कवि, लेखक सभी तो होते हैं। इनके चक्कर में नहीं फंसना चाहिये।
अब समझ में आया कि कवियों और लेखकों को क्यों अमरकांत जी ने जुआरियों, शराबीयों और लोभियों की कोटि में रखा था। वैश्यालयों से कवियों और लेखकों को अपनी लेखकीय नायिका के चरित्र ढूँढने में सहायता जो मिलती थी।
इन्हीं सब बातों को सोचते हुए बस न जाने कब वैश्याओ के इस बदनाम इलाके को छोड मौलाना आजाद रोड पर आ गई थी। मैं सोच में था। कैसी विडंबना है कि एक ओर भारत के पहले शिक्षामंत्री मौलाना आजाद के नाम सडक है वहीं दूसरी ओर साहित्य सरिता........... इन दोनों के बीच में शिक्षा व्यवस्था को मुँह चिढाता लेदर करेंसी का ठीया।
उधर एफ एम चैनल पर गानों के बदले अब मुख्य समाचार पढे जा रहे थे। बराक ओबामा से प्रधानमंत्री की मुलाकात .........सुरक्षा व्यवस्था पर गहन चिंतन.. ...... राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने आज सुखोई विमान उडाया..........
- सतीश पंचम
11 comments:
bahut achcha laga yeh sansmaran....
ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के
कहां हैं, कहां हैं मुहाफिज़ खुदी के
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं....
कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं...
ये पुर पेच गलियां, ये बदनाम बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये अस्मत के सौदे, ये सौदों पर तकरार
जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं....
कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं...
जय हिंद...
अच्छा स्मरण है, आभार, बाकी बात तो खुशदीप जी कह गये।जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं....
कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं...
रोचक शब्द चित्रण
बी एस पाबला
हमेशा की तरह आपने सटीक आलेख..पूरी रोचकता से लिखा है. शुभकामनाएं.
रामराम.
दशकों पहले मेरी भी बस वहां से गुजरी थी। और मैं पहले झेंप, फिर कौतूहल और अन्तत: पूरे समाज की ओर से अपराध बोध से भर गया था।
भारत मै इतनी नारियां अंदोलन करती है, इस ब्लांग जगत मै भी कुछ ऎसी नारिया है, क्या इन्हे नही दिखती यह गलियां या इन्हे नही मालुम इस जगह का पता,अगर यह सच मै ही नारियो का भला करना चाहती है तो आवाज उठाये, ओर इन्हे इस नरक से निकाले.
सतीश जी, सच कहा पता नही केसे यह लडकियां यहां पहुचती है, सच मै यह नरक ही है, ओर यहां आने वाले कमीने लोग ही है, जो कुछ पेसे दे कर किसी की मजबूरी का लाभ ऊठा ते है,
आप क यह लेख बहुत अच्छा लगा
अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथडे हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे?
ओह..इतना प्रवाह..चलता रहता तो एक विशिष्ट कृति हो ही जाती...छू गयी आपकी लेखनी श्रीमान...!
ये हैं सफेद घर के पैबंद.
एक अच्छा लेख जिसने बाँध लिया
बाकी कहने को तमाम लोगों ने बहुत कुछ कहा है
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