
हंस के जुलाई 09 अंक में एक दिलचस्प कहानी पढी है ‘बुजरी’ ( एक प्रकार की अवधी गाली)। लेखक हैं अरूण कुमार। कहानी के अनुसार एक आई ए एस अधिकारी सी. प्रसाद जिलाधीश बनकर आते हैं। उनके आने से पहले ही जिलाधिकारी के चपरासी से लेकर बाबू तक में उनके बारे में चर्चा चल पडती है।
चपरासी रामदीन ने पूछा – क्या बाऊ साहब! नये साहब कौन चोला हैं ?
जवाब मिला - नाम तो है सी. प्रसाद। कायस्थ ही होंगे। बडे अफसरों में सरनेम न लगाने का प्रचलन आ गया है।
अरूण कुमार आगे लिखते हैं – डी एम साहब के आने से पहले ही दो बातें मशहूर हो चुकीं थीं। पहली यह कि साहब बहुत सख्त अफसर हैं और दूसरी यह कि वे बहुत इमानदार हैं। वैसे ये दोनों बातें अक्सर अफसर के जिले में पहुँचने से पहले ही पहुँच जाया करती हैं। चाहे बाद में उससे बढकर चूतिया और बेईमान कोई और न रहा हो।
खैर, जिलाधिकारी सी. प्रसाद आते हैं। रंग उनका करिया भुजंग है। सहबाईन गोरी चिट्टी है। और साथ में है एक उंचा तगडा काला कुत्ता रूस्तम । जिले भर के सभी अफसर मिलने आते हैं। जो कोई साहब से मिलता उसको कुत्ता सूंघता और कपडों पर लार चुआ देता। लेकिन अफसर लोग थे कि कुत्ते रूस्तम की तारीफ करते नहीं थकते। एसडीम ने पूछा ये कौन सा डॉग है।
डॉग नहीं ये मेरा बेटा है। डोंट से डॉग । यू में से डॉगी। डॉगी इस मोर एप्रोप्रियेट वर्ड । दिस इज रॉटवेलर।
सुनकर उदासीन भाव से एस पी साहब ने कहा – लखनऊ में हमारे आई जी साहब के पास भी रॉटवेलर था। उनकी बात को डीएम साहब ने अनसुना कर दिया। वैसे भी आईएएस और आईपीएस अफसरों में पटती नहीं है। डीएम सोचते हैं अब बच्चू को हर बैठक में तलब करूँगा और तब पता चलेगा कि जिले का बादशाह डीएम ही होता है।
यहाँ लेखक अरूण कुमार ने मार्के की बात कही है कि - वैसे भी आईएएस और आईपीएस अफसरों में पटती नहीं है।
कहानी आगे बढती है। मेल मुलाकात के बाद चालाक चपरासी रामदीन कहता है – हुजूर, घर में हवन वगैरह करवा लिया जाय तो अच्छा होगा। मैं पंडित रामशंकर सुकुल को ले आया हूं।
जरूरत नहीं।
हुजूर को पता ही है कि पहले कोठी में माजिद हुसैन साहब रहा करते थे। रोजै बकरा कटता रहा। मुंडेरन पर चील कौव्वों की फौज जमा रहती थी। हवन हो जाता तो अच्छा था।
सहबाईन हवन करवाने मान जाती हैं। एक हजार रूपया चपरासी रामदीन के हवाले कर चल देती है। उन लोगों के जाने के बाद बाबू लोग आपस में मजाक करते हैं।
क्यों बे रामदीनवा । जो भी साहब आता है सबको सलाह देता है । पहले जब माजिद हुसैन साहब आये तो उनको इसने सलाह दी थी कि पहले यहां रामभरोसे भीम रहते थे। कोठी में प्रवेश से पहले फातिहा पढवा लें। और मौलाना को पकड लाया था।
सुनकर रामदीन खीं खीं कर रह जाता है। पंडित से कहता है – आप चलो पंडित जी। आपको कोठी से जल औऱ पुष्प भर मिलेगा। अच्छत, दूरबा, कुस, रोली, मौली, जनेऊ...आप ही को लाना है। उधर पंडित अंगूठे और तर्जनी अंगुली रगडते हुए रामदीन को इशारा किया कि कुछ मिल जाय।
यह देख रामदीन कहता है – इसारेबाजी कर रहे हो। हम तुम्हारा कितना ध्यान रखते हैं. लेकिन पंडित था कि टल नहीं रहा था । सो रामदीन कहता है – लां..... न चाटो पंडित। सायकिल पर चूतड धरो और निकल लो।
यहां हवन फातिहा वाला प्रसंग देख कर लगता है कि लेखक अरूण कुमार का पाला इस तरह के कैरेक्टरों से पड चुका है वरना यह हवन-फातिहा वाला महीन भेद खोलना आसान नहीं है।
इधर सी. प्रसाद, आई ए एस, जिलाधिकारी खादिमपुर का कुत्ता रूस्तम बेचैन रहने लगता है। वह कई लोगों को काट लेता है। डॉक्टरों ने बताया कि कुत्ते को जोडा खाना पडेगा ( कुतिया से संबंध बनाना पडेगा) तब जाकर कुत्ता सामान्य हो पायेगा. लेकिन सी. प्रसाद, आई ए एस के कुत्ते के जोड की कुतिया हो तब न। सभी अफसरान दौडे, कहां- कहां से कुतियों के बारे में लिस्ट निकाल लाये पर सी. प्रसाद को एक भी कुतिया अपने रॉटवेलर कुत्ते के बराबर की न लगी।
इसी बीच सी. प्रसाद को खबर मिलती है कि उनके पिता गाँव में बीमार हैं। लेकिन गाँव छोडे भी तो सी. प्रसाद को बारह साल हो गये हैं। IAS बनने के बाद सी. प्रसाद ने दिल्ली में ही एक गोरी चिट्टी को फांस लिया था जिसके दम पर पोस्टिंग मिलने आदि में आसानी हो गई। शादी भी कर ली जबकि इधर सी. प्रसाद, IAS, की एक पत्नी पहले से ही गाँव में है और उसके एक बच्चा भी है।
पत्नी को बाहर दौरे का बहाना बनाते हुए अपनी गाडी लेकर खुद सी. प्रसाद, IAS बारह साल बाद अकेले ही अपने गाँव के लिये निकल पडते हैं। गाँव के पास एक पुरानी यादों में बसे पकौडी की दुकान खोजते हैं। पता चलता है कि अब वो दुकान दूसरी जगह है। दुकान अब उस पुरानी दुकान के मालिक का लडका चलाता है। सी. प्रसाद, IAS, उस पकौडी की दुकान के पास गाडी खडी कर एसी चालू कर पकौडी का ऑर्डर देते हैं।
बारह साल बाद आँखों पर रेबेन का चश्मा लगाये सी, प्रसाद यह पकौडी खा रहे हैं कि तभी पकौडी वाला शीशे पर खटखट करता है। शीशा नीचे किया जाता है। पकौडी वाला झूरी, IAS सी. प्रसाद को पहचान जाता है।
आप वही हैं न हमारे इलाके के निकले बडे अफसर। इस इलाके से निकले अकेले आप ही तो हो। हमारे बाप ने बहुत पकौडी खिलाई है आपको।
हां।
भईया आप चिरई प्रसाद ही हो न।
चिरई प्रसाद। बरसों बरस बाद यह नाम उनके कान से टकराया था और वह हिल गये थे।
चिरई प्रसाद, सुत भगवंत प्रसाद, जाति अनुसूचित, ग्राम झंझौटी, तहसील राधेगंज, जनपद महमूदाबाद। यही दर्ज था सी. प्रसाद के बारे में यहां के स्थानीय कॉलेज के रजिस्टर में। ( चिरई = चिडिया )
चिरई प्रसाद सोचते जा रहे थे और गाडी चलाते जा रहे थे। दो बजते बजते सी. प्रसाद अपने गाँव की सरहद पर थे। उनके गाँव का बचपन का दोस्त निहुट मिल जाता है। शानदार लैड रोवर में बैठा निहुट ठंडी हवा खा रहा है। कुत्ते रूस्तम से उसकी दोस्ती हो जाती है।
ई सार कौन जाती का है ? बहुत लार चुआता है।
इसे कहते हैं रॉटवेलर। इसकी नस्ल उम्दा किस्म की है। इसे पालना आसान नहीं है।
का नाम है ! रांडपेलहर । बच्चा वच्चा हो तो एकाध इधर भी भेज दो।
रॉटवेलर बे ! यही तो मुश्किल है। अच्छी नस्ल की कुतिया तो मिले पहले।
अरे, तो कुत्ता ऐसा पालो जिसकी कि कुतिया भी हो ताकि जोडा खा सके।
यहां अरूण कुमार जी ने बहुत ही सहज तरीके से एक गँवई आदमी निहुट और एक IAS अफसर के बीच संवाद लिखे हैं।
कहानी आगे बढती है। चिरई प्रसाद घर पहुँचते हैं। बारह साल बाद घर पहुँचने पर घर में रूदन मच जाता है। महतारी अलग रोती है तो पत्नी अजीबा अलग। सांवली सी पत्नी को चिरई प्रसाद ध्यान से देखते हैं। बेटा लटूरे प्रसाद जो बारह साल का है वह भी भौंचक रहता है। उसे विश्वास नहीं होता कि सामने जो बैठा है वह उसका बाप है और बाहर जो शानदार गाडी खडी है उस पर उसका भी हक है। माँ जब अपनी सूखी छातियों से चिरई प्रसाद को लगाकर रोती है तो IAS अफसर चिरई प्रसाद असहज महसूस करते हैं और खुद को महतारी से अलग कर एक खाट पर बिठा देते हैं।
इस मिलन को अरूण कुमार जी ने अपनी सशक्त लेखनी से अमर बना दिया है।
थोडी देर बाद चिरई प्रसाद IAS को बाहर की तरफ कुछ आवाज सुनाई देती है। निकल कर देखते हैं कि उनका कुत्ता रूस्तम एक खजैली कुतिया से जोडा खा रहा है। संबंध बनाये हुए है। और निहुट लोहकार लोहकार कर उसका जोश बढा रहा था – अबे रूस्तम गाडी की सवारी से यह सवारी ज्यादा मजेदार है न।
अबे चिरई, देख अपने रूस्तम को। क्या शान से जोडा खा रहा है। स्साले अच्छी नस्ल के इंतजार में इसे बूढा कर रहा था।
चिरई परसाद को काटो तो खून नहीं। रूस्तम से उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि एक खजैली कुतिया से वह संबंध बना लेगा। एक लाठी लेकर दोनों को चिरई प्रसाद ने अलग किया।
साली बुजरी, हमारा ही कुत्ता मिला था।
इस घटना से चिरई प्रसाद को जैसे आघात सा लगा।
खैर, शाम को खाने पर सब लोग बैठे तो चिरई प्रसाद की पत्नी और मां ने एक गीत गाया। सहेली के रूप में खुश होकर गाये गीत का भावार्थ यह था कि
कहीं पर गिरा कंगना, कहीं पर नथुनी और कहीं पर गिरा माथे की टिकुली ।
उसे किसने पाया।
सास ने पाया कंगना, ननद ने पाया नथुनी और माथे की टिकुली बलम ने पाया है।
कैसे लोगी कंगना, कैसे लोगी नथुनी और कैसे लोगी टिकुली।
हंस के लूंगी कंगना, बिहंस के लूंगी नथनी और लिपट कर लूंगी टिकुली।
चिरई प्रसाद के कानों में जब अपनी पत्नी का स्वर टकराया कि लिपटि के लैहों टिकुली तो चिरई प्रसाद के मन के तार बज उठे। उन्होंने देखा कि अजीबा मुंह में पल्लू दबाए मुस्करा रही है और उनकी तरफ कनखियों से देख रही है।
रात होने को थी कि बचपन का मित्र निहुट पिये हुए आया। थोडी बहुत बकबक करने के बाद चिरई प्रसाद से बोला – बैंचो किसी काम का नहीं साला। अबे सोने की अंगूठी से तो अच्छी लोहे की मुंदरी होती है कम से कम सनीचर तो शांत करती है। महतारी बाप को छोड देवे तो कम से कम अपने लौंडा को तो देख। मेहरारू ( पत्नी) को तो देख।
चिरई प्रसाद का छोटा भाई पियक्कड निहुट से कहता है चलो तुम्हें अपने घर छोड आउं।
अरे, हमका का छोडबे । अपना भाई का उनके शहर में छोड आव तो एका असली रंग पता चली। स्साला चोट्टा , करनी न करतूत, पलरी जैसी चू.......।
कुछ और बक बक करने के बाद निहुट यह कहते लडखडाते कदमों से बाहर चला गया - बैंचो ले पकड अपने रांडपेलहर को।
यहाँ अरूण कुमार ने रात बिरात होने वाली बैठकी का अच्छा खाका खींचा है। किस तरह एक पियक्कड आदमी बक बक करता है और एकाध उसे उसके घर छोड आने का आग्रह करते हैं और पियक्कड है कि कुछ न कुछ सच –झूठ बोल बाल कर चल देता है औऱ उसके जाते ही पीछे रह जाती है उसके बारे में सोचने वाले की तंद्रा।
चिरई प्रसाद सोचते हैं साले सब यहीं रहेंगे इसी तरह पिछडे। एक मैं काम का निकल गया तो क्या सबको काम पर लगवाने का ठेका ले लिया है ?
सबके जाने के बाद देर रात चिरई प्रसाद अपनी सांवली पत्नी के पास जाते हैं। उससे संबंध बनाने की प्रक्रिया में पसीने से तर बतर पत्नी से उन्हें एक प्रकार की बू आती प्रतीत होती है। थोडी देर जब्त करने के बाद जब पत्नी के बदन से आती बू उन्हें असह्य हो जाती है तो यह कह कर हट जाते हैं कि –
हट् बुजरी! स्साली खजैली कुतिया।
इस कहानी ‘बुजरी’ के जरिये अरूण कुमार ने एक ऐसे शख्स की जिंदगी को पेश किया है जो चिरई प्रसाद से सी. प्रसाद, बना था और इस बनने बिगडने के क्रम में न जाने कितने अध्याय उसकी जिंदगी के ढंके हुए थे।
बेहतरीन वाक्य रचना और सशक्त लेखनी से ‘बुजरी’ कहानी, ने ‘हंस’ के अब तक के प्रकाशन इतिहास में एक और अध्याय जोड दिया है। अरूण कुमार जी को उनकी सशक्त लेखन क्षमता के लिये बधाई और राजेन्द्र यादव जी को यह कहानी पाठकों के सामने लाने के लिये धन्यवाद ।
यहां मैंने ‘बुजरी’ कहानी के कुछ अंशों को साभार ‘हंस’ से प्रकाशित किया है। पूरी कहानी और शब्द रचना का पूरा आनंद लेने के लिये ‘हंस’ के जुलाई 09 के अंक को पढें।
- सतीश पंचम
स्थान - मुंबई
समय - वही, जब सारा मीडिया हिलेरी हिलेरी गा रहा हो और खेत में खडा किसान सोच रहा हो कि उसका किसान हिल्लोरी गीत पढे लिखे बाबू , साहब-साहबान लोग क्यूँ गा रहे हैं।
26 comments:
सतीश भाई इस यथार्थ को वही समझ सकता है जो आज भी कही न कहीं गाँव और विशेतया उस समाज से जुडा हो ,हम आप इस लिए इसे बहुत नजदीक से समझ रहे हैं क्योंकि हम आप भी ऐसे ही ग्रामीण क्षेत्र से सम्बन्ध रखते हैं जहाँ यह कथा कई गाँव में सत्य रूप में दिखाई पडती है .बहुत उम्दा और बेजोड़,यथार्थ परक घटना को कहानी के रूप में प्रस्तुत करने के लिए कहानीकार को बधाई.इस कहानी की सुधि दिलानें के लिए आपको बहुत धन्यवाद.
बहुत उम्दा यथार्थ परक घटना को कहानी के रूप में प्रस्तुत करने के लिए कहानीकार को बधाई. कहानी की सुधि दिलानें के लिए बहुत धन्यवाद.
चिरई प्रसाद के कारण यहां जातिगत रंग है कथा में। पर मैने ब्राह्मण देखा है जो पहली लुगाई ग्रामीण होने के नाते साथ नहीं रखता चूंकि शहर में मेम ही चलती है।
कोई चंद्रिका प्रसाद तेवारी (काल्पनिक - चिरई से तुक भिड़ाते) पर भी तो लिखे! :)
आपने बहुत अच्छी कहानी पढ़वाई। आदमी और कुत्ते के माध्यम से बढिया खाका तैयार हुआ है और ऑफिस के साथ-साथ ग्राम परिवेश बिल्कुल सजीव हो उठा है।
आगे भी ऐसी प्रस्तुति जारी रखें। आभार।
यथार्थ को उकेरती कथा -ज्ञानदत्त जी से सहमत ! कहानी एक जातिगत(दुर) गंध लिए हुए हैं -कहानीकार ने एक लम्बे समयावधि को कहानी के कैनवास पर लिया है -मुश्किल काम है ! पढ़नी पड़ेगी कहानी ! वैसे आपने सारतत्व तो पढ़ा ही दिया !
शुक्रिया !
@ चिरई प्रसाद के कारण यहां जातिगत रंग है
@ कहानी एक जातिगत(दुर) गंध लिए हुए हैं
मेरा मानना है कि कुछ हद तक यह कहानी जातिगत तो है पर बैलेंस्ड अप्रोच लेकर लिखी गई है। इस कहानी में एक ओर चिरई प्रसाद नाम का अनुसूचित अफसर है तो दूसरी ओर एक पंडित रामशंकर सुकुल भी है
अरूण जी ने कहानी में चपरासी रामदीन और पंडित रामशंकर सुकुल की बातचीत पहले सहज ढंग से बताई है। रामदीन पंडित रामचंद्र सुकुल को आप आप कह कर संबोधित करता है कि आप अच्छत , रोली वगैरह ले आना। आदि आदि। लेकिन जैसे ही पैसे की बात आती है चपरासी रामदीन कहता है – लां..... न चाटो पंडित। सायकिल पर चूतड धरो और निकल लो।
अरूण कुमार की कहानी का यह बैलेंस्ड अप्रोच ही है जो कहानी को कुछ अलग बना देता है।
लगता तो यथार्थ है. बहुत बधाई आपको.
भाई पंचम जी हमारी पोस्ट भी एक कमीने ने वही छाप दी जहां आपकी छापी थी. हो सके तो आपका इमेल और फ़ोन नम्बर हमारे कमेंट बाक्स मे छोडियेगा..मोडरेशन लगा है... आपसे कुछ राय लेनी है.
रामराम.
का पांड़े जी आप भी पड़ गये तेवारी अउर कोरी के चक्कर में। कहानी क मूल सन्देशअ ई है कि कइसे एक दलित बड़मनई बन जाने पर अपने लोगन को भूल जाता है, उन लोगों के बीच बइठने में उसे दुर्गन्ध आती है। चाहे बुरा मानिए लेकिन अब तो कह दिये।
अक्सर बड़ा आदमी बन जाने पर दलित अपने जाति के लिए सबसे बड़ा बुर्जुआ हो जाता है। कम से कम दूरी बनाकर तो अवश्य रखता है। अपवाद की बात नहीं कह सकते। इस तरह की कहानी तेवारी पर ही लिखी जायेगी तभी आप लोगों को सन्तोष होगा क्या? तब जातीय (दुर) गंध नहीं आयेगी।
आप ने कहानी की सुंदर समीक्षा की है। बधाई।
@शुकुल जी ,
बताव भला तब कईसे दुर्गन्ध आयी हो !
waah ek behtarin kahani ki behtarin samiksha,bahut khub.
रात के बारह बजे हैं और यह पोस्ट पढ़ते-पढ़ते मेरे मुँह से हँसी, नैराश्य, क्षोभ, और चमत्कृत होने के भाव की ध्वनियाँ अनायास निकल रही हैं। सोते हुए बच्चे जाग कर उठ बैठे हैं। डैडी क्या हुआ? अब उन्हें सी.प्रसाद के खजैले अनुभव के बारे में क्या बताऊँ? इसे तो श्रीमती जी को भी दिखाना मुश्किल है।
सच में बड़ी जबर्दस्त और साहसी कथा लिखी है अरुण कुमार जी ने। राजेन्द्र यादव जी का इफेक्ट आ गया लगता है। पूरी कथा के लिए ‘हंस’ खरीदनी पड़ेगी। नेट पर लिंक मौजूद नहीं है शायद।
बुहत ही बेहतरीन
अदबुध कहानी... कहानी के पात्र बड़े जाने-चिन्हे से लगते हैं.... कहानी का शिल्प इतना बेजोड़ है की दावा किया जा सकता है की कोई इसे पढता छोड़ उठ जाये...
इस कहानी और कहानीकार से मुलाकात करवाने के लिए हार्दिक धन्यवाद्....
शुभकामनायें...
www.nayikalam.blogspot.com
विशेष सूचना :
अभी अभी पता चला है कि इस कहानी के लेखक अरूण कुमार, दरअसल अरूण राजनाथ जी ही हैं जो कि Tribune के Special Correspondent (South Asia), हैं, और मुझे यह जानकर खुशी हुई कि वह खुद भी ब्लॉगर हैं।
उनके ब्लॉग का लिंक ये रहा
http://arspeaks.blogspot.com/
Bhai, main to abhibhoot hoon ki meri kahani par charch ho rahi hai Satish ji ke blog par. Khoji aadmi lagte hain jo mujhe khoj nikala.
Vaise main is baat se sahmat nahin hoon ki kahani main jati ke rang hain. Aaj ke samaj main jatiyan bhi matlab ke liye hi istemaal hoti hain. Jab zaroorat padi, seclurar ho gaye ya jat-paat se door ho gaye aur jab zaroorat padi ghor jatiwadi ho gaye. Mere ek mitra hain, jaati se thakur hain, purane communist hain, CPI (M)ke cadre rah chuke hain. Ek patrika bhi nikalte the,jisme Rajnath Singh ke khilaaf unke sampadak ne lekh chaap diya. Unhone uski taarif bhi ki, lekin jab Lucknow mein Rajnath Singh se mulaqaat tai hui to sampaadak par khijane lage.
To mitro! mujhe pata hai ke chirai prasad ki tarah chandrika prasad tewari bhi hain.
Kisi mitra ne yeh bhi likha hai ki ise shrimati ji ko bhi dikhana mushkil hai. Ab main iska kya jawab doon?
achchhi sameeksha ki aapne
padhni padegi
बस यही कहूँगा, की बहुत ही सच्चा चित्रण है. मैं अपने दोस्तों के जरिये जानता हूँ, की जो कुछ भी लिखा है, सही है.. और रही बात ये जात - पात की ..वगैरह..वगैरह.. थोडा वक़्त ले के सोचिये जनाब, टाइम कितना आगे जा रहा है, और हम है, की बस किसी भी अच्छी रचना को - जाती धर्म के चश्मे से देखते हैं. सच्चाई देखिये, दर्द देखिये.. कटाक्ष देखिये और सतीश बाबू की पारखी नजर देखिये की उन्होंने किस प्रकार से कहानी के बीच बीच में अपनी चुटीली दो लाइनों से इस कहानी में और भी रस घोर दिया है. .. बहुत सुन्दर..
सतीश पंचम जी मैंने आपके इस ब्लॉग पोस्ट को आपकी अनुमति से अपने पॉडकास्ट में प्रकाशित किया है. आशा है की आप पसंद करेंगे. अरुण कुमार जी को बहुत आभार इस कहानी को लिखने के लिए.. और यहाँ आके दो पंक्तियाँ लिखने के लिए.. मैंने आपकी कहानी और सतीश जी की समीक्षा को थोडा और आगे ले जाने का छोटा सा प्रयास इस पॉडकास्ट के जरिये किया है..आपके स्नेह और आशीर्वाद का इछुक
http://panchayatnama.mypodcast.com/2010/01/post-275374.html
मैं अपनी एक कविता पर आपकी टिप्पणी के सहारे यहाँ पहुँची. वैसे मैं ब्लॉग जगत में कम विचरण करती हूँ, पर कभी ऐसे ही टहलने लगती हूँ, तो कुछ अच्छी पोस्ट पढ़ने को मिलती है और कुछ कच्ची अमिया खाने वाले लोग मिल जाते हैं. सच कहूँगी कि इस कहानी के शीर्षक से आकर्षित होकर इसे पढने लगी. बहुत अच्छी कहानी है, दलित ब्राह्मणवाद ....अरुण जी को बधाई. रागदरबारी की याद आ गयी. आप हो न हो रायबरेली के या उन्नाव के या सीतापुर के या कहीं अवध के ही. मैं उन्नाव में पली-बढ़ी हूँ. ये गाली मेरी अम्मा अक्सर बहुत खीझकर मुझे दे देती थीं. मुझे इसका अर्थ नहीं मालूम था, अम्मा से पूछकर अक्सर थप्पड़ खाती थी. आज अम्मा नहीं हैं. पर एक गाली कैसे बचपन की यादों को खींच लाती है अपने पास और उस माहौल को भी जिसमें आप पले-बढ़े होते हैं, आज पहली बार महसूस किया.
सार सँक्षेप में बाजी मार ली भाई !
पर श्रेय यह जायेगा की अरूण जी का ब्लॉगलिंक भी खोज निकाला !
कहानी हमने पढ़ी थी इस कहानी के लिए अरूण जी को एवं इस पर सार्थक विमर्श करने के लिए सतीश भाई को धन्यवाद.
kahani bujri parhi,pahle to apne samajik status ko hasiye ke
thora upar pakar gaurwanit huaa.. par turant hi man ne kaha ki purwagrah aadharit kahaniyo jaisi hi hain ... jaise pili chatri wali ladki etc...
jis pad ke bare me .... class hain n ki caste aur waisi hi manobriti,sambharant jana to pragati aur vikas ki prakriya me include /exclude hote hi rahte hain... khair ...lagi
ठेठ देशी भाषा में लिखी हुई कहानी, सशक्त किरदारों के साथ। आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया। बहुत दिनों के बाद खालिस देशी शब्द पढने को मिले। कुत्ते का अपभ्रंश तो कमाल का है . इतनी जोर की हंसी आई की ऑफिस मेरे तरफ देखने लगा की क्या हो गया है इसे।
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सादर,
शिवेंद्र मोहन सिंह
इस तरह का complex और cunningness सिर्फ किसी एक जाति तक ही सीमित नहीं है। ....... आजमगढ़ का एक फ्रेश IAS दिल्ली में posted था। अपनी ही बिरादरी के सीनियर आईएस जो जौनपुर या शाहगंज के रहने वाले थे और दिल्ली में ही पोस्ट थे, की बेटी से शादी हो गई। सास mod हो गई थी और गाँव के joint family से बचना चाहती थी यही हाल बच्चों का भी था। ऐसे में दिल्ली में बैठे बिठाए IAS दामाद मिलना तो भाग्य से छीकां टूटने वाली बात थी और दामाद जी को सास ससुर के सामने अपने सीधे सादे मिडिल क्लास माँ बाप गंवार नज़र आने लगे और ससुराल के चकाचौंध में ऐसे उलझे की निकल नहीं पाए। आज मम्मीजी का हैप्पी bday है तो कल पापाजी का फिर भैयाजी का तो कभी पापाजी मम्मीजी की शादी की वर्षगांठ की पार्टी यानी साल भर का busy schedule जिससे आजमगढ़ आना जाना बहुत कम हो गया। उनके अपने माँ -बाप ही दिल्ली आ कर मिलते थे। एक बार पिता धोती बनियान पहन के बंगले के बरामदे में पैर फैला कर बैठे थे तभी बेटे का batch mate परिवार सहित मिलने आ गया। दोस्त ने बाहर बैठे पिता के बारे में पूछा तो बेटे ने धीरे से अंग्रेजी में कहा " ही इज माय फादर्स फ्रेंड एन हैज़ कम फॉर सम वर्क हियर" बाप ने ये सुन लिया और बेटे के दोस्त से ठेठ आज़मगढ़ीया लहजे में कहा " ए बाऊ हम इनकर बाप के नाहीं इनकर महतारी के यार हईं" और सामान बांध कर तुरंत रवाना हो गए। उसके बाद क्या हुआ बताने की ज़रूरत नहीं। शर्मिंदगी और पश्चाताप से बेटे ने ससुराल वालों की मर्ज़ी के खिलाफ north east में कोई पोस्टिंग opt कर ली।
कृपया कोई भाई इस गाली का मूल अर्थ स्पष्ट करेंगे क्या ?
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