लोग अक्सर पुरूषों को रफ एण्ड टफ यानि हार्ड कोडेड देखना चाहते हैं, और स्त्रियों को नाजुक, नरम उछाह वाले अंदाज में । यह बात एक नये अंदाज में मुझे अपने डॉक्टर के यहाँ एक वाकये से दो-चार होने पर पता चली। हुआ यूँ कि क्लीनिक में मैं अपने लिये दवा लेने गया था। यह क्लिनिक मुंबई के पंजाबी कैंप में है और आसपास ज्यादातर विभाजन के बाद भारत आये लोगों के साथ-साथ पंजाब के लोग ज्यादा रहते हैं। यहाँ के लोगों में एक प्रकार का भाईचारा मैंने अक्सर देखा है। लोग अक्सर एक दूसरे के बारे में जानकारी रखते हैं।
क्लिनिक में दस-बारह मरीज और थे। तभी एक व्यक्ति नें डॉक्टर से फीस पूछी। डॉक्टर साहब ने अपने ही अंदाज मे ही कहा - पचास कड्डो।
लेकिन पैसे देने के बजाय वह आदमी खडा रहा और उस शख्स के साथ आई उसकी पत्नी ने अपने पर्स से सौ का नोट निकाल कर डॉक्टर को पकडाये। डॉक्टर साहब ने अपनी दराज में उस सौ के नोट को वापस रखते हुए पचास रूपये वापस उस महिला को पकडाये। महिला ने पचास का नोट लिया , अपने पर्स में रखा, दोनों चले गये। दोनों के जाने के बाद डॉक्टर मंद-मंद मुस्करा रहे थे। एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया - की गल्ल होई....... थोडा सानुं वी दस्सो।
डॉक्टर साहब अब खुल कर हँसने लगे और बोले - ऐनु वेखदा ए जो हुण गिया.......राजेंनदर लाले दा पुत्तर ए। मैं ताँ इसदी जनानी दा रौब वेख के हस रिया सी।
बात मेरी समझ में कुछ-कुछ आ रही थी। दरअसल पैसे पत्नी ने अपने पर्स से दिये थे यह देखकर कुछ खटका हुआ था, मुझे भी और आसपास बैठे लोगों को भी। तभी पास बैठे एक सरदार जी बोल पडे- ओ शराबी-वराबी होउगा, तां ही उसदी जणाणी ने पैसे अपणे कोलों कड्डे, नई ताँ की लौड सी।
मुझे भी यह बात जँच रही थी कि, हो सकता है पति के हाथ में पैसे न टिकते हों या पति उडा देता हो, इसलिये घर का कारभार पत्नी ही देखती हो।
लेकिन तभी डॉक्टर बोले - ओ नईं जी नई,बंदा शरीफ है, बहुत शरीफ है। एन्ना शरीफ है कि चलदा वी जणाणीयां दी तराँ है। अज्जे ओहदी सूपरनखा ओन्नु बोले कि तूँ सारा दिन धूप्प विच्च खडे रै ते मजाल है जो लाले दा पुत्तर हिले उधरों। सारा दिन धूप्प विच खडा रहेगा पर कद्दे इक ग्लास पाणी वी नईं मंगेगा।
हम सभी चकरा गये। क्या बात है, पत्नी इतनी हावी है क्या इसकी। खैर आगे डॉक्टर खुद ही बोले - चंगा कमांदा है, कपडे दी दुकान है, दो बच्चे नें, पर खुद ते चिंदी वांग कपडे पैणेगा ते माता जी नुँ वेखो ते फिलम वालियाँ दूरों पज्ज जाण। ऐनुं दबदा वेख के एसनुं होर दबांदी ए।
अब आस-पास बैठे लोग सोच में पड गये, कि कहीं कोई शारिरिक खराबी तो नहीं, जिसके एवज में इस शख्स की पत्नी अपने पति पर अपना गुस्सा निकालती है। अगल-बगल तीन-चार महिलायें भी बैठी थी। उनकी उपस्थिति में अक्सर मर्दों के बीच होने वाले कुछ उडंतु किस्म के मजाकिया सवाल भी नहीं किये जा सकते थे जैसा कि अक्सर इस प्रकार की चर्चायें छिडने पर एकाध मजाक हो ही जाते हैं। सभी के मन में एक ही शंका थी कि हो न हो वही बात हो सकती है, बाकि और तो कोई नहीं, लेकिन अभी तो डॉक्टर ने खुद ही बताया कि दो बच्चे हैं इसके, कहीं कोई कमी नहीं है । डॉक्टर साहब का बताना जारी था जिसके अनुसार यह शख्स का मिजाज कुछ नरम टाईप का है या कहें कि कुछ नारी टाईप मर्द जिसे अक्सर बाईल्या या मेहरारू टाईप कहा जाता है, उस तरह का, बाकी शारिरिक रूप से कोई कमी नहीं है । सभी मुस्करा रहे थे। तभी डॉक्टर साहब ने एक सवाल आसपास बैठी महिलाओं से किया - क्यों जी, तुहाडे नुसार पति किवें होंणा चाईदा ए कडक बंदा होणा चाईदा ए कि नरम।
हँसती हुई एक महिला ने ही जवाब दिया कडक बंदा जी।
लो सुणो। कडक बंदा चाहीदा ए। क्यों नरम क्यों नईं।
सभी आस पास बैठे लोग ठठाकर हँस पडे। जैसा कि मैने बताया ज्यादातर लोग आस पास के है और एक दूसरे को जानते पहचानते हैं। इसलिये इस तरह का हँसी-मजाक अक्सर डॉक्टर साहब के यहाँ चलते ही रहता है। डॉक्टर खुद भी हँसमुख हैं। तभी एक और व्यक्ति ने कहा -
गल्ल ऐ है कि सारीयाँ औरताँ नाल पुछ्छो.......सब ने एई कैणा है। सानुं कडक बंदा चईदा ए। अज्जे पिंड दी छड्डो हुण शैर विच वी किसे नाल पुछ्छो - ओ वी कहेगा......ना जी मर्द ते ओ ही हुंदा ए जे जणाणी नुं काबू विच रखे ।
अब मुद्दा थोडा भटक रहा था। पुरूष प्रधान समाज की तस्वीर उभरती जा रही थी। तभी पास बैठे एक व्यक्ति ने ही कहा - दरअसल अभी जो ये जणाणी गई है, उसको चाहिये था कि अपने पति के हाथ में पर्स पकडाती और पति उसमें से पैसे निकाल कर देता। लेकिन हुआ उल्टा। कई बार होता है कि पति पर्स भूल गया या रह गया तो ऐसे में पत्नी को पति के हाथ में पर्स दे देना चाहिये। सभी लोग आहो जी कह कर समर्थन कर रहे थे। पास बैठी महिलायें भी सई गल्ल है कह कर हामी भर चुकीं थी। मैं कुछ तय नहीं कर पाया कि कितना सही है या कितना गलत।
खैर, बात आई गई हो गई। मै दवा लेकर लौटा और इस बात को भूल सा गया। इस वाकये को हुए लगभग दो-तीन महीने हो गये । अभी कल ही फणीश्वरनाथ रेणु जी की एक रचना मिथुन राशि पढ रहा था तो लगा कुछ पुरानी धुंधली सी तस्वीर दिख रही है। मिथुन राशि नाम की कहानी में एक पात्र कहता है - "बात यह है कि गाँव की औरतों को सप्ताह में दो-तीन बार नहीं पीटो तो समझती हैं कि उनका पति उन्हें प्यार नहीं करता। और, औरतों को पीटना असभ्यता है न ।" आगे यही पात्र एक प्रसंग में एक व्यक्ति के बारे में कहता है - " रसिक व्यक्ति है ..................पर बीवी के सामने चूँ भी नहीं कर सकता कभी । मेरा अनुमान है , बीवी उसे पीटती होगी। "
धुंधली तस्वीर अब साफ हो गई है। तस्वीर में क्लिनिक वाली वह महिला कह रही थी -सानुं कडक बंदा चाहिदा ए।
- सतीश पंचम
11 comments:
baat gaur karne layak hai
किस्सा उम्दा है। लेकिन मारपीट के ये खानदानी रिवाज कब तक चलते रहेंगे? अब बंद भी करो।
aadhi baat oopar se nikal gayi..
panjabi utni bhi achchhi nahi hai meri.. :)
magar saar samajh me aa gaya..
पुरुष के समर्थ होने या स्त्री से अधिक सक्षम होने या प्रविष्टि के शब्द ‘कड़क’ होने का अर्थ ज्यादातर भारतीय पुरुषों को कभी समझ नहीं आया। न ही उन्होंने आज तक कभी समझने की कोशिश की... और वे रीतिकाल की तरह स्त्री की ओर से सारे स्टेट्मेंट्स जारी किए जाते हैं कि स्त्री को यह अच्छा लगता है, स्त्री को वह अच्छा लगता है।
वरना आज तक साहित्य में स्त्री सदा से मूक रही है, समाज में मूक रही है। काश, स्त्री की पिटाई या उस पर हावी होने को पुरुष की कड़कता समझने वाले सक्षमता का सही अर्थ समझ पाते।
बात बहुत सही पकड़ी आपने...हैरत की बात यह है कि समाज में पुरुष की इस सैकड़ों साल पुरानी प्रधानी ने स्त्री को भी इस बात का यकीन दिला दिया है। बहुत सी स्त्रियां आपको इस बात को लेकर विश्वस्त दिखेंगी कि बंदा कड़क होना चाहिए।
पंचम जी आपका यह लेख अपने पूरे शबाब पर है. काफ़ी दिनो बाद ऐसा लेख आपका आया है. मैं आपको जिस मोह से पढता हूं वह तो पूरा हो गया और इसके लिये आपको एक बहुत बडा सा धन्यवाद.
लाजवाब है आपकी लेखन शैली.
अब जहां तक इस किस्से द्वारा छेडी गई बहस का सवाल है तो बात कुछ गले नही उतरती. मैं तो इस सबको यानि इन पति पत्नि के किस्सों को एक सहज हास्य के रुप मे ही देख पाता हूं. मुझे नही लगता कि कोई भी औरत इस तरह अपने पति द्वारा पिटना चाहेगी या अपमानित होना चाहेगी. अपवादों की कमी नही है, मैं स्पष्ट रुप से कहूं तो ऐसा सम्भव नही है. अब जैसा कि डाक्टर को फ़ीस महिला ने चुकाई, तो ऐसा बिल्कुल सम्भव है. कई बार आपके हमारे साथ भी हुआ होगा, घर से निकले ..याद आया...पर्स भूल गये कपडे बदलते समय...पत्नि को कहा- पर्स भूल गया हूं ..वापस चल कर ले आते हैं ...वो कहती है.. मेरे पास हैं कुछ रुपये...तो अब उसने पैसे दे दिये तो ,,इसमे दबने ऊठने का सवाल ही नही है.
मेरे हिसाब से साहुत्य का मजा साहित्य जैसे ही होना चाहिये.. अब ताई दिन मे ५/७ लठ्ठ मुझे रोज मारती है..तो क्या सिर्फ़ ब्लाग लेखन मे ही मारती है या सचमुच मे? शोध का विषय है. :)
कविताजी ने पोस्ट का मंतव्य पकड लिया लगता है। शायद मेरी विफलता है कि केवल मार-कुटाई वाला अभिप्राय ही इस पोस्ट से झलक रहा है, कडक शब्द का असली बारीक मंतव्य नहीं। मुझसे जैसा बन पडा, लिख सका। एक बात स्पष्ट कर दूँ - मैं मार-कुटाई के सख्त खिलाफ हूँ।
ताउ जी, यह पोस्ट साहित्य को संदर्भ में लेकर मेरे अनुभव पर लिखी गई है न कि किसी और तरह से। मैं कोशिश करूँगा कि अपनी अगली पोस्टों में अमूर्त तत्व कम से कम रखूँ ताकि गफलत की गुंजाईश न रहे।
सतीश जी मै भी आप की बात से सहमत हू, मै भी बहुत ही ज्यादा कडक हूं, लेकिन मार पीट नही , कडक का मतलब यह भी नही कि आप बीबी ओर बच्चो को दबा कर रखो,मेरी बीबी अपने विचार रखने मै बिलकुल आजाद है, मेरे बच्चे भी आजाद है, लेकिन जब घर की इज्जत की , घर की मान मर्यादा की बात आती है तो वो कडक पन का नियम हम सब पर लागू होता है, मुझ पर भी, क्यो कि एक मोहरी जरुर होना चाहिये घर का, अगर सभी मोहरी होगे तो घर का हाल भी हमारे देश की तरह से चोपट होगा, कडक घर के बडे मर्द को ही होना चाहिये.
मेने बहुत से मर्द देखे है, जो अपनी बीबी के आगे कुत्ते की तरह से दुम हिलाते है... तो उस की बाते लोग बाहर खुब करते है, ओर कसुर किसी का भी हो ... लेकिन घर की ओरत को ही सब बुरा कहते है, चाहे उस ओरत ने घर बनाने मै खुब योगदान दिया हो,
पहली बात आप भी मेरी तरह फणीश्वरनाथ रेणु के बहुत बड़े फेन है.....दूसरी बात विवाह का मतलब है एक दूसरे के प्रति स्नेह सम्मान ओर उसकी खुशी के लिए अपने सुखो को खुशी से त्याग करना...दोनों का...जैसे आप अपने बच्चे को खाना खिलाते वक़्त उसको रोटी के बीच का टुकडा देते है ओर ख़ुद....कोने वाला खाते है..एक दूसरे की अस्तित्व को ज्यूँ का त्यु बचाए रखना....
राज जी, यही बात मैं कह रहा हूँ कि घर मे किसी को अगुआ होना चाहिये, कडक का मतलब उसी तरह से है, मार-पीट से नहीं।
@ अनुराग जी, - जी हाँ, आपने सही पहचाना। मैं भी फणीश्वरनाथ रेणु जी का बहुत बडा प्रशंसक हूँ। हाँलाकि मैं प्रेमचंद को भी मैं उतना ही पढता हूँ जितना कि रेणु को, पर कभी-कभी लगता है कि प्रेमचंद के नाम के आगे रेणु जी की प्रतिभा थोडी दब सी गई है । बच्चों के टेक्सट बुक में भी प्रेमचंद ही छाये हैं, रेणु नहीं।
बात पते की कही गई है । हर जगह महिलाए हावी होती जा रही है । पुरूष प्रधान समाज में महिलाओ को जो अधिकार मिला है वह सही है लेकिन यह अधिकार कही न कही गलत भी सावित होता जा रहा है । इसलिए मै तो यही जानता हू कि महिलाओ को अधिकार चाहिए आजादी नही । वरन समाज औऱ परिवार का गठन सही तरीके से संभव नही है ।
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